Tuesday, October 6, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय - 19



पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय - 19

श्रीसूत जी बोले –

हे तपस्वियो! इस प्रकार कहते हुए प्राचीन मुनि नारायण को मुनिश्रेष्ठ नारद मुनि ने मधुर वचनों से प्रसन्न करके कहा ॥ १ ॥

हे ब्रह्मन्‌!तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को प्रसन्न विष्णु भगवान्‌ ने क्या उत्तर दिया सो हे तपोनिधे! मेरे को कहिये ॥ २ ॥

श्रीनारायण बोले –

इस प्रकार महात्मा सुदेव ब्राह्मण ने विष्णु भगवान्‌ से कहा। बाद भक्तवत्सल विष्णु भगवान् ने वचनों द्वारा सुदेव ब्राह्मण को प्रसन्न करके कहा ॥ ३ ॥

हरि भगवान्‌ बोले:-

हे द्विजराज! जो तुमने किया है उसको दूसरा नहीं करेगा। जिसके करने से हम प्रसन्न हुए उसको आप नहीं जानते हैं ॥ ४ ॥

यह हमारा प्रिय पुरुषोत्तम मास गया है। स्त्री के सहित शोक में मग्न तुमसे उस पुरुषोत्तम मास की सेवा हुई ॥ ५ ॥

हे तपोनिधे! इस पुरुषोत्तम मास में जो एक भी उपवास करता है, हे द्विजोत्तम! वह मनुष्य अनन्त पापों को भस्म कर विमान से बैकुन्ठ लोक को जाता है ॥ ६ ॥

सो तुमको एक महीना बिना भोजन किये बीत गया और असमय में मेघ के आने से प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न सायं तीनों काल में स्नान भी अनायास ही हो गया ॥ ७ ॥

हे तपोधन! तुमको एक महीना तक मेघ के जल से स्नान मिला और उतने ही अखण्डित उपवास भी हो गये ॥ ८ ॥

शोकरूपी समुद्र में मग्न होने के कारण ज्ञान से शक्ति से हीन तुमको अज्ञान से पुरुषोत्तम का सेवन हुआ ॥ ९॥

तुम्हारे इस साधन का तौल कौन कर सकता है ? तराजू के एक तरफ पलड़े में वेद में कहे हुए जितने साधन हैं ॥ १० ॥

उन सबको रख कर और दूसरी तरफ पुरुषोत्तम को रख कर देवताओं के सामने ब्रह्मा ने तोलन किया ॥ ११ ॥

और सब हलके हो गये, पुरुषोत्तम भारी हो गया। इसलिये भूमि के रहने वाले लोगों से पुरुषोत्तम का पूजन किया जाता है ॥ १२ ॥

हे तपोधन! यद्यपि पुरुषोत्तम मास सर्वत्र है, फिर भी इस पृथ्वी लोक में पूजन करने से फल देने वाला कहा गया है ॥ १३ ॥

इससे हे वत्स! इस समय आप सब तरह से धन्य हैं, क्योंकि आपने इस पुरुषोत्तम मास में उग्र तथा परम दारुण तप को किया है॥ १४ ॥

मनुष्य शरीर को प्राप्त कर जो लोग श्रीपुरुषोत्तम मास में स्नान दान आदि से रहित रहते हैं वे लोग जन्म-जन्मान्तर में दरिद्र होते हैं ॥ १५ ॥

इसलिये जो सब तरह से हमारे प्रिय पुरुषोत्तम मास का सेवन करता है वह मनुष्य हमारा प्रिय, धन्य और भाग्यवान्‌ होता है ॥ १६ ॥

श्रीनारायण बोले –

हे मुने! जगदीश्वर हरि भगवान्‌ इस प्रकार कह कर गरुड़जी पर सवार होकर शुद्ध बैकुण्ठ भवन को शीघ्र चले गये ॥ १७ ॥

सपत्नी्क सुदेवशर्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से मृत्यु से उठे हुए शुकदेव पुत्र को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १८ ॥

मुझसे अज्ञानवश पुरुषोत्तम मास का सेवन हुआ और वह पुरुषोत्तम मास का सेवन फलीभूत हुआ। जिसके सेवन से मृत पुत्र उठ खड़ा हुआ ॥ १९ ॥

आश्चर्य है कि ऐसा मास कहीं नहीं देखा! इस तरह आश्चर्य करता हुआ उस पुरुषोत्तम मास का अच्छी तरह से पूजन करने लगा ॥ २० ॥

वह सपत्नीक ब्राह्मणश्रेष्ठ इस पुत्र से प्रसन्न हुआ और शुकदेव पुत्र ने भी अपने उत्तम कार्यों से सुदेवशर्मा पिता को प्रसन्न किया ॥ २१ ॥

सुदेवशर्मा ने पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की तथा आदर के साथ श्रीविष्णु भगवान्‌ की पूजा की और कर्ममार्ग से होने वाले फलों में इच्छा का त्याग कर एक भक्तिमार्ग में ही प्रेम रखा ॥ २२ ॥

श्रेष्ठ पुरुषोत्तम मास को समस्त दुःखों का नाश करने वाला जान कर, उस मास के आने पर स्त्री के साथ जप-हवन आदि से श्रीहरि भगवान्‌ का सेवन करने लगा ॥ २३ ॥

वह सपत्नीक श्रेष्ठ ब्राह्मण निरन्तर एक हजार वर्ष संसार के समस्त विषयों का उपयोग कर विष्णु भगवान्‌ के उत्तम लोक को प्राप्त हुआ ॥ २४ ॥

जो योगियों को भी दुष्प्राप्य है, फिर यज्ञ करने वालों को कहाँ से प्राप्त हो सकता है? जहाँ जाकर विष्णु भगवान्‌ के सन्निकट वास करते हुए शोक के भागी नहीं होते हैं ॥ २५ ॥

वहाँ पर होने वाले सुखों को भोग कर गौतमी तथा सुदेवशर्मा दोनों स्त्री-पुरुष इस पृथ्वी में आये। वही तुम सुदेवशर्मा इस समय दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध पृथ्वी के राजा हुए॥ २६ ॥

पुरुषोत्तम नाम के सेवन से समस्त ऋद्धियों के भोक्ता हुये। हे राजन्‌! यह आपकी पूर्व जन्म की पतिदेवता गौतमी ही पटरानी है ॥ २७ ॥

हे राजन् जो आपने मुझसे पूछा था सो सब मैंने कहा और शुक पक्षी तो पूर्वजन्म में जो पुत्र ॥ २८ ॥

शुकदेव नाम से प्रसिद्ध थे और हरि भगवान्‌ ने जिसको जीवित किया था वह बारह हजार वर्ष तक आयु भोग कर बैकुण्ठ को गया ॥ २९ ॥

वहाँ वन के तालाब के समीप वट वृक्ष पर बैठकर पूर्वजन्म के पिता तुमको आये हुए देखकर ॥ ३० ॥

मेरे हितों के उपदेश करनेवाले, प्रत्यक्ष मेरे दैवत, विषयरूपी सर्प से दूषित संसार सागर में मग्न ॥ ३१ ॥

इस प्रकार पिता को देख कर और अत्यन्त कृपा से युक्त वह शुक पक्षी विचार करने लगा कि यदि मैं इस राजा को ज्ञान का उपदेश नहीं करता हूँ तो मेरा बन्धन होता है ॥ ३२ ॥

जो पुत्र अपने पिता को पुन्नाम नरक से रक्षा करता है वही पुत्र है। आज मेरा यह श्रुति के अर्थ का ज्ञान भी वृथा हो जायगा ॥ ३३ ॥

इसलिये अपने पूर्वजन्म के पिता का उपकार पूरा करूँगा। हे राजन्‌ दृढ़धन्वा! इस तरह निश्चय करके वह शुक पक्षी वचन बोला ॥ ३४ ॥

हे पाप रहित! राजन्‌! जो आपने पूछा सो यह सब मैंने कहा। अब इसके बाद पापनाशिनी सरयू नदी को जाऊँगा  ॥ ३५ ॥

श्रीनारायण बोले – 

इस प्रकार बहुत समय तक उस प्रसिद्ध यशस्वी राजा दृढ़धन्वा के पूर्वजन्म का चरित्र कहकर जाते हुए बाल्मीकि मुनि की प्रार्थना कर असंख्य पुण्यवान्‌, राजाओं का राजा बाल्मीकि मुनि को नमस्कार करता हुआ कुछ बोला ॥ ३६ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे बाल्मीकिनोक्तदृढ़धन्वोपाख्याने पुरुषोत्तममासमाहात्म्यकथनं नामैकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥ १९ 

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