Thursday, October 8, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय– 21


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय– 21

बाल्मीकि मुनि बोले:-

इसके बाद फिर प्रतिभा की अनलोत्तारण क्रिया करके प्राणप्रतिष्ठा करे। अन्यथा यदि प्राणप्रतिष्ठा नहीं करता है तो वह प्रतिमा धातु ही कही जाएगी अर्थात्‌ उसमें देवता का अंश नहीं होता है ॥ १ ॥

दाहिने हाथ से प्रतिमा के दोनों कपालों का स्पर्श कर हरि भगवान्‌ की उस प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठा अवश्य करे ॥ २ ॥

प्रतिमाओं में प्राणों की प्रतिष्ठा न करने से सुवर्ण आदि का भाग पूर्व के समान ही रहता है उनमें देवता वास नहीं करते हैं ॥ ३ ॥

हे पार्थिव! दूसरे देवताओं की प्रतिमा में भी देवत्वसिद्धि के लिये प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ ४ ॥

पुरुषोत्तम भगवान्‌ के बीजमन्त्र से और “तद्विष्णोः परमम्पदँ सदा” इस मन्त्र से करना चाहिये, मन्त्रवेत्ता उसी प्रकार प्रतिमा के हृदय पर अंगुष्ठ निरन्तर रख कर ॥ ५ ॥

हृदय में भी इन मन्त्रों से प्राणप्रतिष्ठा को करे। इस प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठित हों, इस प्रतिमा में प्राण चलायमान हों ॥ ६ ॥

इस प्रतिमा की पूजा के लिये देवत्व प्राप्त हो स्वाहा, इस तरह यजुर्मन्त्र को कहता हुआ मूलमन्त्रों से, अंगमन्त्रों से, वैदिकमन्त्रों से ॥ ७ ॥

सर्वत्र प्रतिमाओं में प्राणप्रतिष्ठा को करे अथवा अच्छी तरह चतुर्थ्यन्त नाम मन्त्रों से ॥ ८ ॥

स्वाहा पद अन्त में जोड़ कर तत्तद्‌ देवताओं का अनुस्मरण करता हुआ प्राणप्रतिष्ठा को करे। इस प्रकार प्राणों की प्रतिष्ठा करके श्रीपुरुषोत्तम का ध्यान करे ॥ ९ ॥

श्रीवत्स चिह्न से चिह्नित वक्षःस्थल वाले, शान्त, नील कमल के दल के समान छविवाले, तीन जगहों से टेढ़ी आकृति होने से सुन्दर, राधा के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करे ॥ १० ॥

देश काल को कह कर अर्थात्‌ संकल्प करके, नियम में स्थित होकर, मौन होकर, पवित्र होकर, षोडशोपचार से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे ॥ ११ ॥

हे देव! हे देवेश! हे श्रीकृष्ण! हे पुरुषोत्तम! राधा के साथ आप यहाँ मुझसे दिये हुए पूजन को ग्रहण कीजिये ॥ १२ ॥

श्रीराधिका सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार है। यह कह कर आवाहन करे। हे देवदेवेश! हे पुरुषोत्तम! अनेक रत्नों से युक्त अर्थात्‌ जटित और कार्तस्वर (सुवर्ण) से विभूषित इस आसन को ग्रहण करें। इस तरह कह कर आसन समर्पण करे ॥ १३ ॥

गंगादि समस्त तीर्थों से प्रार्थना पूर्वक लाया हुआ यह सुखस्पर्श वाला जल पाद्य के लिये ग्रहण करें। इस प्रकार कह कर पाद्य समर्पण करे ॥ १४ ॥

हे हरि! गोपिकाओं के आनन्द के लिए महाराज नन्द गोप के घर में प्रकट हुए, आप राधिका सहित मेरे दिये हुए अर्ध्य को ग्रहण करें। यह कह कर अर्ध्य समर्पण करे ॥ १५ ॥

हे ऋषिकेश! अर्थात्‌ हे विषयेन्द्रिय के मालिक! हे पुराण-पुरुषोत्तम! अच्छी तरह से लाया गया और सुवर्ण के कलश में स्थित गंगाजल से आप आचमन करें, यह कह कर आचमन समर्पण करे ॥ १६ ॥

हे हरि! मेरे से लाये गये पंचामृत से राधिका सहित जगत्‌ के धाता आपके पूजित होने पर अर्थात्‌ आपके पूजन से मेरे कार्य सिद्धि को प्राप्त हों ॥ १७ ॥

हे राधिका के आनन्द दाता! दूध, दही, गौ का घृत, शहद और चीनी, इन द्रव्यों को ग्रहण करें। यह कह कर पंचामृत से स्नान समर्पण करे ॥ १८ ॥

हे नाथ! योगेश्वर, देव, गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, यज्ञों के स्वामी गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है ॥ १९ ॥

हे कृष्ण! गंगाजल के समान नदी तीर्थ का मेरे से दिया गया यह जल है। नन्द को आनन्द देनेवाले! आप इसको ग्रहण करें। यह कहकर फिर स्नान समर्पण करे ॥ २० ॥

हे देव! समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये इन दो पीताम्बरों को भक्ति के साथ मैंने निवेदन किया है। हे सुरसत्तम! आप ग्रहण करें। यह कह कर वस्त्र समर्पण करे और वस्त्र धारण के बाद आचमन दे ॥ २१ ॥

हे दामोदर! आपको नमस्कार है, इस भवसागर से मेरी रक्षा करें। हे पुरुषोत्तम! उत्तरीय वस्त्र के साथ जनेऊ को आप ग्रहण करें। यह कह कर जनेऊ समर्पण करे और आचमन देवे ॥ २२ ॥

हे सुरश्रेष्ठ! अत्यन्त मनोहर सुगन्धित, दिव्य, श्रीखण्ड चन्दन विलेपन आपके लिये है इसको ग्रहण करें। यह कहकर चन्दन समर्पण करे ॥ २३ ॥

हे सुरश्रेष्ठ! केशर से रंगे हुए शोभमान अक्षतों का भक्ति से मैंने निवेदन किया है, हे पुरुषोत्तम! आप ग्रहण करें। यह कहकर अक्षत समर्पण करे ॥ २४ ॥

हे प्रभु! मैं मालती आदि सुगन्धित पुष्पों को आपके पूजन के लिये लाया हूँ। आप इनको ग्रहण करें। यह कह कर पुष्प समर्पण करे ॥ २५ ॥

बाद अंगों का पूजन करे। नंद-यशोदा के पुत्र, केशि दैत्य को मारने वाले, पृथ्वी के भार को उतारने वाले, अनन्त विष्णुरूप धारण करने वाले ॥ २६ ॥

प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, श्रीकण्ठ, सकलास्त्रधृक, वाचस्पति, केशव और सर्वात्मा, इन नामों से ॥ २७ ॥

पैर, गुल्फ, जानु, जघन, कटी, मेढ्‌, नाभि, हृदय, कण्ठ, बाहु और मुख ॥ २८ ॥

नेत्र, शिर और सर्वांग का पुष्पों को हाथों में लेकर चतुर्थ्यन्त नामों को कह कर विश्वरूपी जगत्पति भगवान्‌ का पूजन करे ॥ २९ ॥

इस प्रकार प्रत्यंग का पूजन कर फिर चतुर्थ्यन्त केशवादि नाममन्त्रों से ॥ ३० ॥

एक-एक पुष्प हाथ में लेकर पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे ॥ ३१ ॥

दिव्य वनस्पतियों के रस से बना हुआ, गन्ध से युक्त, उत्तम गन्ध, समस्त देवताओं के सूँघने के योग्य यह धूप है, इसको आप ग्रहण करें यह कहकर धूप समर्पण करे ॥ ३२ ॥

हे भगवन्‌! आप समस्त देवताओं के ज्योति हैं, तेजों में उत्तम तेज हैं, आत्मज्योति के परमधाम यह दीप आप ग्रहण करें। यह कहकर दीप समर्पण करे ॥ ३३ ॥

हे देव! नैवेद्य को ग्रहण करें और मेरी भक्ति को अचल करें। इच्छानुकूल वर को देवें और परलोक में उत्तम गति को देवें। यह कह कर नैवेद्य समर्पण करे। मध्य में जल समर्पण करे। आखिर में आचमन जल को देवें ॥ ३४ ॥

हे ऋषिकेश! हे त्रैलोक्य की व्याधियों का शमन करने वाले! अच्छी तरह से सुवर्ण के कलश में गंगाजल को लाया हूँ, इस जल से आप आचमन करें। यह कहकर आचमन देवे ॥ ३५ ॥

हे देव! मैंने इस फल को आपके सामने स्थापित किया है, इसलिये मेरे को जन्म-जन्म में सुन्दर फलों की प्राप्ति हो। यह कहकर श्रीफल (बेल) समर्पण करे ॥ ३६ ॥

हे देव! हे परमेश्वर! गन्ध कपूर से युक्त, कस्तूरी आदि से सुवासित इस करोद्वर्तन (हाथ की शुद्धि के लिये उबटन) को ग्रहण करे। यह कहकर करोद्वर्तन समर्पण करे ॥ ३७ ॥

हे देव! सुपारी से युक्त कर्पूर सहित, मनोहर, भक्ति से दिये गये इस ताम्बूल को ग्रहण करें। यह कहकर ताम्बूल समर्पण करे ॥ ३८ ॥

ब्रह्मा के गर्भ में स्थित, अग्नि के बीज, अनन्त पुण्य के फल को देने वाला सुवर्ण आप ग्रहण करें और मेरे लिये शान्ति को देवें। यह कहकर दक्षिणा समर्पण करे ॥ ३९ ॥

शरत्‌ काल में होने वाले कमल के समान श्याम, तीन जगहों से टेढ़े होने से सुन्दर आकृति वाले, देवेश, राधिका के सहित हरि भगवान्‌ की आरती करता हूँ। यह कह कर नीराजन समर्पण करे ॥ ४० ॥

हे जगन्नाथ! रक्षा करो, रक्षा करो। हे त्रैलोक्य के नायक! रक्षा करो। आप भक्तों पर कृपा करने वाले हों। मेरी प्रदक्षिणा को ग्रहण करें। ऐसा कह कर प्रदक्षिणा समर्पण करे ॥ ४१ ॥

यज्ञेश्वर, देव यज्ञ के कारण, यज्ञों के स्वामी, गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है। यह कह कर मन्त्रपुष्पाञ्जलि समर्पण करे ॥ ४२ ॥

विश्वे्श्वर, विश्वारूप, विश्व के उत्पन्न करने वाले, विश्व के स्वामी, नाथ, गोविन्द भगवान्‌ को नमस्कार है, नमस्कार है। यह कह कर नमस्कार समर्पण करे ॥ ४३ ॥

“मन्त्रहीनं क्रियाहीनं” इस मन्त्र से पुरुषोत्तम भगवान्‌ को क्षमापन समर्पण करके स्वाहान्त नाम मन्त्रों से प्रतिदिन तिल से हवन करे ॥ ४४ ॥

पुरुषोत्तम मास पर्यन्त घृत का अखण्ड दीप समस्त फल की सिद्धि के लिये और पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ समर्पण करे ॥ ४५ ॥

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु॰। इस मन्त्र से जनार्दन भगवान्‌ को नमस्कार करके ‘प्रमादात्‌ कुर्वतां कर्म।’ इस मन्त्र से जो कुछ कमी रह गई हो उसको सम्पूर्ण करके सुख पूर्वक रहे ॥ ४६ ॥

इस प्रकार जो इस पृथ्वी तल पर मनुष्य शरीर प्राप्त करके पुरुषोत्तम मास के आने पर वैष्णव ब्राह्मण को आचार्य बनाकर मेघ के समान श्यामवर्ण वाले, राधा के सहित श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ का हर्ष और भक्ति के साथ प्रति दिन पूजन करेगा वह इस पृथ्वी के अतुल समस्त सुखों को भोगकर बाद परम पद को जाएगा ॥ ४७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने पुरुषोत्तमपूजनविधिर्नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ 

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