Sunday, October 11, 2020

पुरूषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-23


पुरूषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-23

दृढ़धन्वा राजा बोला –

हे मुनियों में श्रेष्ठ! हे दीनों पर दया करने वाले! श्रीपुरुषोत्तम मास में दीप-दान का फल क्या है? सो कृपा करके मुझसे कहिये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले –

इस प्रकार राजा दृढ़धन्वा के पूछने पर अत्यन्त प्रसन्न, मुनियों में श्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि ने हँसते हुए विनीत अत्यन्त नम्र राजा दृढ़धन्वा से कहा ॥ २ ॥

बाल्मीकि मुनि बोले –

हे राजाओं में सिंहसदृश पराक्रमवाले! पापों का नाश करने वाली कथा को सुनिये जिसके सुनने से पाँच प्रकार के महान्‌ पाप नाश को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥

सौभाग्य नगर में चित्रबाहु नाम से प्रसिद्ध, बड़ा बुद्धिमान्‌, अत्यन्त बलवान्‌ राजा था ॥ ४ ॥

वह क्षमाशील, समस्त धर्मों को जानने वाला, शील रूप और दया से युक्त, ब्राह्मणों का भक्त, भगवान्‌ का भक्त, कथा के श्रवण में तत्पर ॥ ५ ॥

हमेशा अपनी स्त्री में प्रेम करने वाला, पशु पुत्र से युक्त, चतुरंगिणी सेना से युक्त, ऐश्वर्य में कुबेर के समान था ॥ ६ ॥

उसकी चन्द्रकला नाम की स्त्री चौंसठ कला को जानने वाली, पतिव्रता, महान्‌ भाग्यवती, भगवान्‌ की भक्ति को करने वाली थी ॥ ७ ॥

उसके साथ युवा चित्रबाहु राजा पृथ्वी का भोग करने लगा। वह बिना श्रीकृष्ण के दूसरे देवता को नहीं जानता था ॥ ८ ॥

एक दिन पृथ्वीपति राजा चित्रबाहु ने दूर से ही आये हुए मुनियों में श्रेष्ठ अगस्त्य मुनि को देख कर ॥ ९ ॥

पृथ्वी में दण्डवत्‌ प्रणाम कर उनकी विधिपूर्वक पूजा की। और भक्ति से आसन देकर मुनिश्रेष्ठ के सम्मुख बैठ गया ॥ १० ॥

विनय से नम्र होकर मुनिश्रेष्ठ से कहा। राजा बोला – आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरा दिन सफल हुआ ॥ ११ ॥

आज मेरा राज्य सफल हुआ, आज मेरा गृह सफल हुआ जो आप श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक आज मेरे गृह में आये हैं ॥ १२ ॥
मैं तापपुञ्जष से मुक्त हो गया। आपको हाथी घोड़े रथ से युक्त समस्त राज्य समर्पण किया ॥ १३ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ! आप वैष्णव हो, आपके लिये कोई भी अदेय वस्तु नहीं है। वैष्णव को थोड़ा भी दिया हुआ मेरु पर्वत के समान होता है ॥ १४ ॥

जो कौड़ी के बराबर शाक अथवा उत्तम अन्न जिस दिन वैष्णव ब्राह्मण को नहीं देता है ॥ १५ ॥

वह दिन उसका विफल है, ऐसा वेद के जाननेवालों ने कहा है। जो कोई द्विजाति विष्णुभक्त हों वे सब पूज्य हैं ॥ १६ ॥

उनका वाणी मन कर्म से सत्कार करना चाहिये। ऐसा मुझसे गर्ग, गौतम, सुमन्तु, ऋषि ने कहा है ॥ १७ ॥

जब तक सूर्योदय नहीं होता है तभी तक तारागण की प्रभा रहती है। जब तक वैष्णव ब्राह्मण नहीं आता है, तभी तक दूसरे ब्राह्मण कहे गये हैं ॥ १८ ॥

अगस्त्य मुनि बोले – हे

हे चित्रबाहु! हे महाभाग! हे नृप इस समय तुम धन्य हो, ये सब प्रजा धन्य हैं जो तुम वैष्णवों की रक्षा करते हो ॥ १९ ॥

जो राज्य वैष्णव का नहीं हो उसके राज्य में वास नहीं करना। शून्य वन में वास करना अच्छा है, परन्तु अवैष्णव के राज्य में रहना अच्छा नहीं है ॥ २० ॥

जिस प्रकार नेत्रहीन शरीर, पतिहीन स्त्री, बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण निन्द्य है वैसे ही वैष्णव रहित देश निन्द्य है ॥ २१ ॥

जैसे दाँत के बिना हाथी, पंख के बिना पक्षी, दशमीविद्धा द्वादशी (एकादशी) कही गई है वैसे ही वैष्णव रहित देश है ॥ २२ ॥

जैसे कुशा रहित सन्ध्या, तिलहीन तर्पण, वृत्ति के लिये देवता की सेवा है वैसे ही वैष्णव रहित देश कहा है ॥ २३ ॥

जैसे केशों को धारण करनेवाली विधवा स्त्री, स्नान रहित व्रत, ब्राह्मणी में गमन करनेवाला शूद्र है वैसे ही बिना वैष्णव का राष्ट्र निन्द्य है ॥ २४ ॥

जो श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों का आश्रय करने वाला है सत्पुरुषों से राजा कहा गया है उसका राष्ट्र हमेशा वृद्धि को प्राप्त होता है और उसकी प्रजा सुखी होती है ॥ २५ ॥

हे राजन्‌! जो मैंने तुमको देखा इसलिए मेरी दृष्टि सफल हुई। भगवद्भक्त आपके साथ बात करने से आज मेरी वाणी सफल हुई ॥ २६ ॥

हे राजन्‌! मेरी आज्ञा से यह राज्य तुमको करना चाहिए। मैंने इस राज्य में तुमको प्रतिष्ठित किया। तुम्हारा कल्याण हो मैं जाऊँगा ॥ २७ ॥

श्रीनारायण बोले –

इस प्रकार कह कर जाने की इच्छा करनेवाले श्रेष्ठ मुनि अगस्त्य को चित्रबाहु राजा की पतिव्रता स्त्री ने परमभक्ति के साथ प्रणाम किया ॥ २८ ॥

अगस्त्य मुनि बोले:-

हे शुभे! तू सदा सौभाग्यवती हो और भक्ति से पति की सेवा कर। श्रीगोपीजन के वल्लरभ श्रीकृष्णचन्द्र में तेरी सदा दृढ़ भक्ति हो ॥ २९ ॥

इस प्रकार आशीर्वाद देते हुए अगस्त्य ऋषि से विनयपूर्वक शिर नवा कर और अञ्जलि बाँध कर चित्रबाहु राजा ने फिर कहा ॥ ३० ॥

चित्रबाहु बोला :-

हे विप्रेन्द्र! यह विपुल लक्ष्मी कैसे हुई? निष्कण्टक राज्य कैसे हुआ? यह मेरी स्त्री इतनी पतिव्रता कैसे हुई? और मैंने कौन-सा पुण्य किया था? ॥ ३१ ॥

हे विप्रेन्द्र! यह सब मेरे से आप कहिए। मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे मुनीश्वर! आप हाथ में स्थित दर्पण के समान सब जानते हो ॥ ३२ ॥

श्रीनारायण बोले :-

इस प्रकार राजा चित्रबाहु के कहने पर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य एकाग्रचित्त होकर राजश्रेष्ठ चित्रबाहु से बोले ॥ ३३ ॥

अगस्त्य मुनि बोले :-

हे राजन्‌! मैंने तुम्हारे पूर्वजन्म का चरित्र देख लिया है। इतिहास के सहित प्राचीन उस चरित्र को कहता हूँ ॥ ३४ ॥

सुन्दर चमत्कार पुर में शूद्र जाति में जीव हिंसा करने में तत्पर मणिग्रीव कामधारी तुम हुए ॥ ३५ ॥

सो तुम नास्तिक, दुष्टचरित्र वाले, दूसरे की स्त्री को हरण करनेवाले, कृतध्न, दुर्विनीत, शिष्टाचार से रहित हुए ॥ ३६ ॥

और तुम्हारी यह जो स्त्री है यही पूर्व जन्म में भी स्त्री थी। यह कर्म, मन और वचन से पतिसेवा में परायण थी ॥ ३७ ॥

पतिव्रता, महाभागा, धर्म में प्रेम करनेवाली, मनस्विनी इसने कभी भी तुम्हारे विषय में दुष्टभाव नहीं किया ॥ ३८ ॥

पापकर्म को करनेवाले तुम्हारा जाति और बान्धवों ने त्याग कर दिया और क्रुद्ध होकर राजा ने सब उत्तम धन ले लिया ॥ ३९ ॥

फिर उस समय बचा हुआ जो कुछ अवशेष धन था उसको जातिवालों ने भी लिया। तब उस समय धन के चले जाने से तुमको धन की भारी इच्छा हुई ॥ ४० ॥

परन्तु धन के नाश होने पर भी मन मलीन होकर इस पतिव्रता ने तुम्हारा त्याग नहीं किया। इस प्रकार सब लोगों से तिरस्कृत होने पर तुम निर्जन वन को गये ॥ ४१ ॥

हे महीपते! वन में जाकर अनेक पशुओं को मारकर अपनी आत्मा का रक्षण किया। इस प्रकार स्त्री के सहित जीवन निर्वाह करते हुए ॥ ४२ ॥

धनुष को उठाकर मणिग्रीव मृग के मांस को खाने की इच्छा से बहुत से सर्प और मृग से भरे हुए वन को गया ॥ ४३ ॥

उस मनुष्यरहित वन के मध्य मार्ग में उग्रदेव नाम के महामुनि दिशाज्ञान के नष्ट हो जाने से व्याकुल हो गये ॥ ४४ ॥

हे राजन्‌! मध्याह्न के समय तृषा से अत्यन्त पीड़ित हो वहाँ ही गिरकर मरणासन्न हो गये। उस समय ॥ ४५ ॥

रास्ते को भूले हुए उस दुःखित ब्राह्मण को देख कर तुमको दया आई। बाद उस ब्राह्मण को उठाकर और उसको साथ लेकर तुम अपने आश्रम को गये ॥ ४६ ॥

उस दुःखित ब्राह्मण की तुम दोनों स्त्री-पुरुष ने सेवा की। एक मुहूर्त के बाद उस समय महायोगी उग्रदेव ॥ ४७ ॥

चैतन्यता को प्राप्त हो आश्चर्य करने लगे कि मैं वहाँ था यहाँ कैसे आ गया? उस वन के बीच से कौन लाया? ॥ ४८ ॥

श्रीनारायण बोले –

मणिग्रीव ने उस ब्राह्मण से कहा कि यह सुन्दर तालाब है इसमें कमलिनी के पुष्प से सुगन्धित शीतल जल है ॥ ४९ ॥

हे ब्राहम्ण‌! उस शीतल जल में स्नान करके मध्याह्न की क्रिया करके फलाहार करें और सुन्दर शीतल जल का पान करें ॥ ५० ॥

इस समय मैंने रक्षा की है। आप सुख से विश्राम करें। हे मुनिश्रेष्ठ! आप उठिये और आप कृपा करने के योग्य हैं ॥ ५१ ॥

अगस्त्यजी बोले:-

उस समय उग्रदेव ब्राह्मण श्रमरहित सावधान हो मणिग्रीव का वचन सुन कर तृषा से व्याकुल हो उठा ॥ ५२ ॥

हे चित्रबाहु! मणिग्रीव की भुजा पकड़ कर वट-वृक्ष से शोभित तालाब के तट पर जाकर बैठ गये ॥ ५३ ॥

वट की छाया में बैठकर क्षणमात्र विश्राम कर स्नान और नित्यकर्म कर वासुदेव भगवान्‌ का पूजन किया ॥ ५४ ॥

देवता पितरों को तर्पण कर सुन्दर शीतल जल को पान कर उग्रदेव ब्राह्मण शीघ्र वट के मूल भाग में आकर बैठ गये ॥ ५५ ॥

पत्नी  सहित मणिग्रीव ने मुनिश्रेष्ठ उग्रदेव को नमस्कार किया और अतिथि सत्कार करने की इच्छा से विनययुक्त वाणी से बोला ॥ ५६ ॥

मणिग्रीव बोला:-

हे ब्राहम्ण‌! आज मुझको तारने के लिये आप मेरे आश्रम को आये। आपके दर्शन से मेरे पाप नष्ट हो गये ॥ ५७ ॥

इस प्रकार उस ब्राह्मण से कह कर प्रसन्न मणिग्रीव स्त्री से बोला:-

अयि! सुन्दरी! जो जो स्वादिष्ट पके हुए फल हैं ॥ ५८ ॥

उन आम्रफलों को तुम जल्दी लाओ विलम्ब मत करो। हे शुभानने! और जो कुछ कन्द आदि हों उनको भी लाओ ॥ ५९ ॥

इस प्रकार स्त्री अपने पति के वचन को सुन फलों को और कन्दादिकों को लाकर हर्ष से ब्राह्मण के सामने रखती हुई ॥ ६० ॥

मणिग्रीव फिर मुनिश्रेष्ठ से वचन बोला कि हे ब्रह्मन्‌! इन फलों को ग्रहण कर मुझ स्त्री-पुरुष को कृतार्थ करें ॥ ६१ ॥

उग्रदेव ब्राह्मण बोला – 

तुमको मैं नहीं जानता हूँ। तुम कौन हो? सो मेरे से कहो। विद्वान्‌ ब्राह्मण को चाहिये कि अपरिचित का भोजन नहीं करे ॥ ६२ ॥

मणिग्रीव बोला:-

हे द्विजशार्दूल! मैं मणिग्रीव नामक शूद्र जाति का, स्वजनों से, जातिवालों से, अपने बान्धवों से त्यागा हुआ हूँ ॥ ६३ ॥

इस प्रकार शूद्र के वचन को सुनकर प्रसन्नात्मा उग्रदेव ने फलों को खाया, बाद जल को पिया ॥ ६४ ॥

ब्राह्मण को सुख से बैठे देखकर मणिग्रीव उग्रदेव ब्राह्मण के पैरों को अपनी गोद में रख कर दबाता हुआ फिर वचन बोला ॥ ६५ ॥

मणिग्रीव बोला :-

 हे मुनिश्रेष्ठ! आप कहाँ जायँगे? इस निर्जन जलरहित हिंसक जन्तुओं से भरे दुष्ट वन में कहाँ से आये? ॥ ६६ ॥

उग्रदेव बोला:-

हे महाभाग! मैं ब्राह्मण हूँ प्रयाग जाना चाहता हूँ। इस समय रास्ता न जानने के कारण भयंकर वन में चला आया हूँ॥ ६७ ॥

उस जगह थकावट और प्यास के कारण क्षणभर में ही मरणासन्नह हो गया। बाद तुमने मेरे को प्राण दिया। हे मणिग्रीव! बोलो, तुमको मैं क्या दूँ ॥ ६८ ॥

हे मणिग्रीव! तुम दोनों स्त्री-पुरुष ने किस दुःख के कारण वन में आश्रय लिया है। उस दुःख को मुझसे कहो मैं उस दुःख को दूर करूँगा ॥ ६९ ॥

अगस्त्य मुनि बोले :-

इस प्रकार उग्रदेव ब्राह्मण के वचन को सुनकर अपनी स्त्री के सामने उस मुनीश्वर उग्रदेव की प्रार्थना कर दरिद्रता समुद्र को पार करने की इच्छा वाले मणिग्रीव ने अपने कर्म के भयंकर फलरूप वृत्तान्त को कहा ॥ ७० ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

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