Thursday, July 18, 2013

भगवान परशुराम

भगवान परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक मुनि थे। उन्हें भगवान् विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख माह शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि को हुआ था। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। 


भगवान् परशुराम ने आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त की ।  उनकी विद्वत्ता से प्रसन्न होकर महर्षि ऋचीक ने सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप ने विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र भगवान् परशुराम को प्रदान किया।   उसके पश्चात कैलाश गिरी ऋनग पर स्थित भगवान् शिव  के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी द्वारा उन्हें श्री कृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर ही निवास करने का वर प्रदान किया ।
भगवान् परशुराम शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म पितामाह , आचार्य द्रोण व कुंती पुत्र कर्ण  को भी शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा था । उनका एक इच्छित फल-प्रदाता मंत्र जिसका नाम परशुराम गायत्री मंत्र है इस प्रकार है :-
"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि,तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" 
उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया,अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। 

परशुरामजी का उल्लेख रामायण , महाभारत , भगवत पुराण , और कल्कि पुराण  इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट थे । उन्होंने  हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार किया था । वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे।  वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।
भगवान परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता के द्वारा ही सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा भी समझते थे और उनसे उन्ही की भाषा में बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वन्य पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।
उनके उद्देश्य में सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही देना लिखा था ।  लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म पितामाह और कुन्तीपुत्र कर्ण ।
प्राचीन काल में कन्नौज  में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम

श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला। उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया तो परशुराम ने सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने सम्बन्धी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर माँगा।

हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।


कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका।
इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं,उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को "विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही" बताते हुए "बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" और क्रोधान्ध हो "सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा" तक कह डाला। तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए "अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता" तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"। बाल्मीकि में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्री राम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
भीष्म पितामाह  द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अम्बा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके।
परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा-"एवमस्तु!" अर्थात् ऐसा ही हो। इससे आचार्य द्रोण भी शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।
परशुराम कर्ण  के भी गुरु थे। उन्होने कर्ण को भी विभिन्न प्रकार कि अस्त्र शिक्षा दी थी और ब्रह्मास्त्र चलाना भी सिखाया था। लेकिन कर्ण एक सूत का पुत्र था, फिर भी यह जानते हुए कि परशुराम केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विधा दान करते हैं, कर्ण ने छल करके परशुराम से विधा लेने का प्रयास किया। परशुराम ने उसे ब्राह्मण समझ कर बहुत सी विद्यायें सिखायीं, लेकिन एक दिन जब परशुराम एक वृक्ष के नीचे कर्ण की गोदी में सर रखके सो रहे थे,तब एक भौंरा आकर कर्ण के पैर पर काटने लगा, अपने गुरुजी की नींद मे कोई अवरोध न आये इसलिये कर्ण भौंरे को सेहता रहा, भौंरा कर्ण के पैर को बुरी तरह काटे जा रहा था, भौरे के काटने के कारण कर्ण का खून बहने लगा। वो खून बहता हुआ परशुराम के पैरों तक जा पहुँचा। परशुराम की नींद खुल गयी और वे इस खून को तुरन्त पहचान गये कि यह खून तो किसी क्षत्रिय का ही हो सकता है जो इतनी देर तक बगैर उफ़ किये बहता रहा। इस घटना के कारण कर्ण को अपनी अस्त्र विद्या का लाभ नहीं मिल पाया।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार गुरु परशुराम कर्ण की एक जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे। तभी एक बिच्छू कहीं से आया और कर्ण की जंघा पर घाव बनाने लगा। किन्तु गुरु का विश्राम भंग ना हो, इसलिये कर्ण बिच्छू के दंश को सहता रहा। अचानक परशुराम की निद्रा टूटी, और ये जानकर की एक शूद्र पुत्र में इतनी सहनशीलता नहीं हो सकती कि वो बिच्छू के दंश को सहन कर ले। कर्ण के मिथ्याभाषण पर उन्होंने उसे ये श्राप दे दिया कि जब उसे अपनी विद्या की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, तब वह उसके काम नहीं आयेगी।


भगवान् परशुराम की जय हो जिन्होंने पृथ्वी में अवतरित होकर मानव कल्याण एवं प्राकर्तिक जीवात्माओं का कल्याण किया। 

सौजन्य से :-

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