पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय – 13
ऋषि जन बोले:-
हे सूत! हे महाभाग! हे बोलने वालों में श्रेष्ठ! पुरुषोत्तम के सेवन से राजा दृढ़धन्वा ने शोभन राज्य, पुत्र आदि तथा पतिव्रता स्त्री को किस तरह प्राप्त किया और योगियों को भी दुर्लभ भगवान् के लोक को किस तरह प्राप्त हुआ? ॥ १-२ ॥
हे तात! आपके मुखकमल से बार-बार कथासार सुनने वाले हम लोगों को अमृत-पान करने वालों के समान कथामृत-पान से तृप्ति नहीं होती है ॥ ३ ॥
इस कारण से इस पुरातन इतिहास को विस्तार पूर्वक कहिये। हमारे भाग्य के बल से ही ब्रह्मा ने आपको दिखलाया है ॥ ४ ॥
सूतजी बोले:-
हे विप्र लोग! सनातन मुनि नारायण ने इस पुरातन इतिहास को नारद जी के प्रति कहा है वही इतिहास इस समय मैं आप लोगों से कहता हूँ ॥ ५ ॥
मैंने जैसा गुरु के मुख से राजा दृढ़धन्वा का पापनाशक चरित्र पढ़ा है उसको सब मुनि श्रवण करें ॥ ६ ॥
श्रीनारायण बोले:-
हे ब्राहम्ण ! नारद! सुनिये। मैं पवित्र करने वाली गंगा के समान राजा दृढ़धन्वा की सुन्दर तथा प्राचीन कथा कहूँगा ॥ ७ ॥
हैहय देश का रक्षक, श्रीमान् बुद्धिमान् तथा सत्यपराक्रमी चित्रधर्मा नाम का राजा था ॥ ८ ॥
उसको दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध अति तेजस्वी, सब गुणों से युक्त, सत्य बोलने वाला, धर्मात्मा और पवित्र आचरण वाला पुत्र हुआ ॥ ९ ॥
कान तक लंबे नेत्र वाला, चौड़ी छाती वाला, बड़ी भुजा वाला, महातेजस्वी वह राजा दृढ़धन्वा प्रशस्त गुण समूहों के साथ-साथ बढ़ता गया ॥ १० ॥
वह चतुर राजा दृढ़धन्वा प्रसन्नता के साथ गुरु के मुख से एक बार कहने मात्र से पूर्व में पढ़े हुये के समान व्याकरण आदि छः अंगों के साथ चार वेदों का अध्ययन कर ॥ ११ ॥
गुरु को दक्षिणा देकर और विधि पूर्वक उनकी पूजा कर बुद्धिमान् राजा गुरु की आज्ञा से पिता चित्रधर्मा के पुर को गया ॥ १२ ॥
अपने नगर में वास करने वाले प्रजावर्ग के नेत्रों को आनन्दित करता हुआ। जिस पुत्र को देख कर राजा चित्रधर्मा भी अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुआ ॥ १३ ॥
पुत्र जवान हो, सम्पूर्ण धर्म को जानने वाला हो और प्रजापालन में समर्थ हो, इससे बढ़ कर सारशून्य इस संसार में और क्या है? अर्थात् कुछ नहीं है ॥ १४ ॥
अब मैं दो भुजावाले, मुरली (वंशी) को धारण करने वाले, प्रसन्न मुख वाले, शान्त तथा भक्तों को अभय देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना करता हूँ ॥ १५ ॥
जिस तरह ध्रुव, अम्बरीष, शर्धाति, ययाति प्रमुख राजा और शिवि, रन्तिदेव, शशबिन्दु, भगीरथ ॥ १६ ॥
भीष्म, विदुर, दुष्यन्त और भरत, पृथु, उत्तानपाद, प्रह्लाद, विभीषण ॥ १७ ॥
ये सब राजा तथा और अन्य राजा लोग भी अनेकों लोगों को त्याग कर, इस अनित्य शरीर से पुरुषोत्तम भगवान् का आराधन कर, नित्य (सदा रहनेवाले) विष्णुपद को चले गये ॥ १८ ॥
उसी तरह स्त्री, भवन, पुत्र आदि में स्नेहमय बन्धन को तोड़कर वन में जाकर हरि का सेवन करना हमारा भी कर्तव्य है ॥ १९ ॥
ऐसा मन में निश्चय कर, समर्थ राजा दृढ़धन्वा को राज्य का भार देकर स्वयं विरक्त हो, शीघ्र पुलह ऋषि के आश्रम को चला गया ॥ २० ॥
वहाँ जाकर सम्पूर्ण कामनाओं से निस्पृह हो और भोजन त्याग कर हर समय मन से श्रीकृष्णचन्द्र का स्मरण करता हुआ तप करने लगा ॥ २१ ॥
कुछ समय तक तप करके वह राजा चित्रवर्मा हरि भगवान् के परम धाम को चला गया। राजा दृढ़धन्वा ने भी अपने पिता की वैष्णवी गति को सुना ॥ २२ ॥
उस समय पिता के परमधाम गमन से हर्ष और वियोग होने से शोक-युक्त राजा दृढ़धन्वा पितृ-भक्ति से विद्वानों के वचन में स्थित होकर, पारलौकिक क्रिया को करता रहा ॥ २३ ॥
नीतिशास्त्र में विशारद (चतुर) राजा दृढ़धन्वा अत्यन्त शोभित पवित्र पुष्करावर्तक नगर में राज्य करने लगा ॥ २४ ॥
अच्छे स्वभाववाली विदर्भराज की कन्या उसकी स्त्री गुणसुन्दरी नाम की थी, पृथ्वी पर रूप में उसके समान दूसरी स्त्री नहीं थी ॥ २५ ॥
उस गुणसुन्दरी ने सुन्दर, चतुर, शुभ आचरण वाले चार पुत्रों को उत्पन्न किया और सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त चारुमती नामक कन्या को उत्पन्न किया ॥ २६ ॥
चित्रवाक्, चित्रवाह, मणिमान् और चित्रकुण्डल नाम वाले वे सब बड़े मानी, शूर अपने-अपने नाम से पृथक् विख्यात होते गये ॥ २७ ॥
राजा दृढ़धन्वा गुणों करके प्रसिद्ध, शान्त, दान्त, दृढ़प्रतिज्ञ, रूपवान्, गुणवान्, वीर, श्रीमान्, स्वभाव से सुन्दर ॥ २८ ॥
चार वेद और व्याकरण आदि ६ अंगों को जानने वाला, वाग्मी (वाक्चतुर), धनुर्विद्या में निपुण, अरिषड्वर्ग (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) को जीतने वाला, और शत्रु-समुदाय का नाश करने वाला ॥ २९ ॥
क्षमा में पृथिवी के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान, समता (सम व्यवहार) में पितामह (ब्रह्मा) के समान, प्रसन्नता में शंकर के समान ॥ ३० ॥
एकपत्नी व्रत (एक ही स्त्री से विवाह करने का व्रत) को करने वाले दूसरे रामचन्द्र के समान, अत्यन्त उग्र पराक्रमशाली दूसरे कार्तवीर्य (सहस्रार्जुन) के समान था ॥ ३१ ॥
नारायण बोले :-
एक समय रात्रि में शयन किये हुए उस राजा दृढ़धन्वा को चिन्ता हुई कि अहो! यह वैभव (सम्पत्ति) किस महान् पुण्य के कारण हमें प्राप्त हुआ है ॥ ३२ ॥
न तो मैंने तप किया, न तो दान दिया, न तो कहीं पर कुछ हवन ही किया। मैं इस भाग्योदय का कारण किससे पूछूँ ॥ ३३ ॥
इस प्रकार चिन्ता करते ही राजा दृढ़धन्वा की रात्रि बीत गई। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर विधिपूर्वक स्नान कर ॥ ३४ ॥
उदय को प्राप्त सूर्यनारायण का उपस्थान कर, भगवान् की कला की पूजा कर अर्थात् देवमन्दिरों में जाकर देवता का पूजन कर, ब्राह्मणों को दान देकर तथा नमस्कार करके घोड़े पर सवार हो गया ॥ ३५ ॥
उसके बाद शिकार खेलने की इच्छा से शीघ्र वन को गया वहाँ पर बहुत से मृग, वराह (सूअर), सिंह और गवयों (चँवरी गाय) का शिकार किया ॥ ३६ ॥
उसी समय राजा दृढ़धन्वा के बाण से घायल होकर कोई मृग बाण सहित शीघ्र एक वन से दूसरे वन को चला गया ॥ ३७ ॥
रुधिर गिरे हुए मार्ग से राजा भी मृग के पीछे गया। परन्तु मृग कहीं झाड़ी में छिप गया और राजा उस वन में उसे खोजता ही रह गया ॥ ३८ ॥
पिपासा से व्याकुल उस राजा ने समुद्र के समान एक तालाब को देखा वहाँ जल्दी से जाकर और पानी पीकर तीर पर चला आया ॥ ३९ ॥
वहाँ घनी छाया वाले एक विशाल बट वृक्ष को देखा। उस वृक्ष की जटा में घोड़े को बाँधकर राजा वहीं बैठ गया ॥ ४० ॥
उसी समय वहाँ पर कोई एक परम सुन्दर सुग्गा राजा को मोहित करने वाली तुलना रहित मनुष्य वाणी को बोलता हुआ आया ॥ ४१ ॥
केवल राजा को बैठे देख उसको सम्बोधित करता हुआ एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ने लगा ॥ ४२ ॥
कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तू तत्त्व (आत्मा) का चिन्तन नहीं करता है तो इस संसार के पार कैसे जाएगा ? ॥ ४३ ॥
बार-बार इस श्लोक को राजा दृढ़धन्वा के सामने पढ़ने लगा। राजा उसके वचन को सुनकर प्रसन्न हुआ और उसपर मोहित हो गया ॥ ४४ ॥
कि इस शुक पक्षी ने दुःख से जानने योग्य, सार भरे हुए नारिकेल फल के समान अगम्य एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ते हुए क्या कहा? ॥ ४५ ॥
क्या यह कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास) के श्रेष्ठ पुत्र शुकदेवजी तो नहीं हैं ? जो कि श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक मुझको मूढ़ और संसार सागर में डूबा हुआ देखकर ॥ ४६ ॥
राजा परीक्षित के समान कृपा कर उद्धार करने की इच्छा से मेरे पास आये हैं? इस तरह चिन्ता करते हुए राजा दृढ़धन्वा की सेना समीप आ गई ॥ ४७ ॥
शुक पक्षी राजा को उपदेश देकर स्वयं अन्तर्धान (अलक्षित) हो गया। उस शुकपक्षी के वचन को स्मरण करता हुआ राजा अपने पुर में आकर ॥ ४८ ॥
बुलाने पर भी नहीं बोलता है और निद्रा रहित हो उसने भोजन को भी त्याग दिया था, तब एकान्त में उसकी रानी ने आकर राजा से पूछा ॥ ४९ ॥
गुणसुन्दरी बोली:-
हे पुरुषों में श्रेष्ठ! यह मन में मलिनता क्यों हुई? हे भूपाल! पृथिवी के रक्षक! उठिये उठिये। भोगों को भोगिये और वचन बोलिए ॥ ५० ॥
देवताओं से भी दुःख से जानने योग्य उस शुक पक्षी के सत्य वचन का स्मरण करता हुआ रानी गुणसुन्दरी के प्रार्थना करने पर भी राजा दृढ़धन्वा कुछ नहीं बोला ॥ ५१ ॥
पति के दुःख से अत्यन्त पीड़ित वह रानी भी दीर्घ स्वाँस लेकर अपने स्वामी की चिन्ता के उत्कट कारण को नहीं जान सकी ॥ ५२ ॥
इस प्रकार चिन्ता में मग्न राजा का कितना ही समय बीत गया, परन्तु सन्देह-सागर से पार करने वाला कोई भी कारण वह देख न सकी ॥ ५३ ॥
नारदजी बोले :-
हे मुने! इस तरह चिन्ता को करते हुए पृथिवीपति राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ सो आप कहें। क्योंकि हे मुने! निर्मल वैष्णव चरित्र थोड़ा भी यदि सुना जाए तो पापों का नाश हो जाता है ॥ ५४ ॥
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढधन्वोपाख्याने दृढधन्वनोमनःखेदो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥