मन्त्र देवी - देवताओं की उपासना का एक साधन है
मननेन त्रायते इति मन्त्रः - जो मनन करने पर त्राण दे वही मन्त्र है। मन्त्र भी एक प्रकार की वाणी है, परन्तु साधारण शब्दों के समान वे हमको बन्धन में नहीं डालते, बल्कि बन्धन से मुक्त करते हैं।
काफी चिन्तन-मनन के बाद किसी समस्या के समाधान के लिये जो उपाय/विधि/युक्ति निकलती है उसे भी सामान्य तौर पर मंत्र कह देते हैं।
अवैध मंत्र
"षड
कर्णो भिद्यते मंत्र" (छ: कानों में जाने से मंत्र नाकाम हो जाता है
तत्पश्चात वह फल प्रदान नहीं करता ) - इसमें भी मंत्र का यही अर्थ है।
मंत्र की परिभाषा:
मंत्र
वह ध्वनि है जो अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनती है। यह संपूर्ण
ब्रह्माण्ड की एक तरंगात्मक ऊर्जा से व्याप्त है जिसके दो प्रकार हैं - नाद (शब्द) एवं प्रकाश।
आध्यात्मिक
धरातल पर इनमें से कोई भी एक प्रकार की ऊर्जा दूसरे के बिना सक्रिय नहीं
होती। मंत्र मात्र वह ध्वनियाँ नहीं हैं जिन्हें हम कानों से सुनते हैं, यह
ध्वनियाँ तो मंत्रों का लौकिक स्वरुप भर हैं.
ध्यान
की उच्चतम अवस्था में साधक का आध्यात्मिक व्यक्तित्व पूरी तरह से प्रभु के
साथ एकाकार हो जाता है जो अन्तर्यामी है. वही सारे ज्ञान एवं 'शब्द' (ॐ)
का स्रोत है. प्राचीन ऋषियों ने इसे शब्द-ब्रह्म की संज्ञा दी - वह शब्द जो साक्षात् ईश्वर है! उसी सर्वज्ञानी शब्द-ब्रह्म से एकाकार होकर साधक मनचाहा ज्ञान प्राप्त कर सकता है.
मंत्र
की उत्पत्ति भय से या विश्वास से हुई है। आदि काल में मंत्र और धर्म में
बड़ा संबंध था। प्रार्थना को एक प्रकार का मंत्र माना जाता था। मनुष्य का
ऐसा विश्वास था कि प्रार्थना के उच्चारण से कार्यसिद्धि हो सकती है। इसलिये
बहुत से लोग प्रार्थना को मंत्र समझते थे।
जब
मनुष्य पर कोई आकस्मिक विपत्ति आती थी तो वह समझता था कि इसका कारण कोई
अदृश्य शक्ति है। वृक्ष का टूट पड़ना, मकान का गिर जाना, आकस्मिक रोग हो
जाना और अन्य ऐसी घटनाओं का कारण कोई भूत या पिशाच माना जाता था और इसकी
शांति के लिये मंत्र का प्रयोग किया जाता था। आकस्मिक संकट बार-बार नहीं
आते। इसलिये लोग समझते थे कि मंत्र सिद्ध हो गया। प्राचीन काल में वैद्य
ओषधि और मंत्र दोनों का साथ-साथ प्रयोग करता था। ओषधि को अभिमंत्रित किया
जाता था और विश्वास था कि ऐसा करने से वह अधिक प्रभावोत्पादक हो जाती है।
कुछ मंत्रप्रयोगकर्ता (ओझा) केवल मंत्र के द्वारा ही रोगों का उपचार करते
थे। यह इनका व्यवसाय बन गया था।
मंत्र
का प्रयोग सारे संसार में किया जाता था और मूलत: इसकी क्रियाएँ सर्वत्र एक
जैसी ही थीं। विज्ञान युग के आरंभ से पहले विविध रोग विविध प्रकार के
राक्षस या पिशाच माने जाते थे। अत: पिशाचों का शमन, निवारण और उच्चाटन किया
जाता था। मंत्र में प्रधानता तो शब्दों की ही थी परंतु शब्दों के साथ
क्रियाएँ भी लगी हुई थीं। मंत्रोच्चारण करते समय ओझा या वैद्य हाथ से,
अंगुलियों से, नेत्र से और मुख से विधि क्रियाएँ किया करते थे इन
क्रियाओं में त्रिशूल, झाड़ू, कटार, वृक्षविशेष की टहनियों और सूप तथा कलश
आदि का भी प्रयोग किया जाता था। रोग की एक छोटी सी प्रतिमा बनाई जाती थी और
उसपर प्रयोग होता था। इसी प्रकार शत्रु की प्रतिमा बनाई जाती थी और उसपर
मारण, उच्चाटन आदि प्रयोग किए जाते थे। ऐसा विश्वास था कि ज्यों-ज्यों ऐसी
प्रतिमा पर मंत्रप्रयोग होता है त्यों-त्यों शत्रु के शरीर पर इसका प्रभाव
पड़ता जाता है। पीपल या वट वृक्ष के पत्तों पर कुछ मंत्र लिखकर उनके मणि या
ताबीज बनाए जाते थै जिन्हें कलाई या कंठ में बाँधने से रोगनिवारण होता
था , भूत प्रेत से भी रक्षा होती थी और शत्रु भी वश में होते थे ये
विधियाँ कुछ हद तक इस समय भी प्रचलित हैं। संग्राम के समय दुंदुभी और ध्वजा
को भी अभिमंत्रित किया जाता था और ऐसा विश्वास था कि ऐसा करने से विजय
प्राप्त होती है।
वृक्षों
में, चतुष्पथों पर, नदियों में, तालाबों में और कितने ही कुओं में तथा
सूने मकानों में ऐसे प्राणी निवास करते हैं जो मनुष्य को दु:ख या सुख
पहुँचाया करते हैं और अनेक विषम स्थितियाँ उनके कोप के कारण ही उत्पन्न हो
जाया करती हैं। इनका शमन करने के लिये विशेष प्रकार के मंत्रों और विविधि
क्रियाओं का उपयोग किया जाता था और यह माना जाता था कि इससे संतुष्ट होकर
ये प्राणी व्यक्तिविशेष को तंग नहीं करते। शाक्त देव और देवियाँ कई प्रकार
की विपत्तियों के कारण समझे जाते थे। यह भी माना जाता था कि भूत, पिशाच और
डाकिनी आदि का उच्चाटन शाक्त देवों के अनुग्रह से हो सकता है। इसलिये ऐसे
देवों का मंत्रों के द्वारा आह्वान किया जाता था। इनकी बलि दी जाती थी और
जागरण किए जाते थे।
मंत्र,
उनके उच्चारण की विधि, विविधि चेष्टाएँ, नाना प्रकार के पदार्थो का प्रयोग
भूत-प्रेत और डाकिनी शाकिनी आदि, ओझा, मंत्र, वैद्य, मंत्रौषध आदि सब
मिलकर एक प्रकार का मंत्रशास्त्र बन गया है और इस पर अनेक ग्रंथों की रचना
हो गई है।
मंत्रग्रंथों
में मंत्र के अनेक भेद माने गए हैं। कुछ मंत्रों का प्रयोग किसी देव या
देवी का आश्रय लेकर किया जाता है और कुछ का प्रयोग भूत प्रेत आदि का आश्रय
लेकर। ये एक विभाग हैं। दूसरा विभाग यह है कि कुछ मंत्र भूत या पिशाच के
विरूद्ध प्रयुक्त होते हैं और कुछ उनकी सहायता प्राप्त करने के हेतु।
स्त्री और पुरुष तथा शत्रु को वश में करने के लिये जिन मंत्रों का प्रयोग
होता है वे वशीकरण मंत्र कहलाते हैं । शत्रु का दमन या अंत करने के लिये जो मंत्रविधि काम में लाई जाती है वह मारण विधि कहलाती है। भूत को भागने के लिए जिस मंत्र का प्रयोग किया जाता है उनको उच्चाटन या शमन मंत्र कहा जाता है।
लोगों
का विश्वास है कि ऐसी कोई कठिनाई, कोई विपत्ति और कोई पीड़ा नहीं है जिसका
निवारण मंत्र के द्वारा नहीं हो सकता और कोई ऐसा लाभ नहीं है जिसकी
प्राप्ति मंत्र के द्वारा नहीं हो सकती।
हिन्दू धर्म में सर्वत्र प्रचलित मंत्र :- माँ गायत्री मंत्र
ॐ भूर्भुव स्वः ।
तत् सवितुर्वरेण्यं ।
भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
- हिन्दी में भावार्थ
उस
प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप
परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को
सन्मार्ग में प्रेरित करे ।
गायत्री मंत्र चारों वेदों में आया है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं
और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के १८
मंत्रों मे केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ
में ही ऋषियों ने कर लिया था, और संपूर्ण ऋग्वेद के १० सहस्र मंत्रों मे इस
मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में २४ अक्षर
हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और
कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे
पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
- (१) ॐ
- (२) भूर्भव: स्व:
- (३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
गायत्री तत्व
क्या है और क्यों इस मंत्र की इतनी महिमा है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक
है। आर्ष मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव
जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण,
एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर
देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के
नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है।
जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है
वैसे मन भी देव है (देवं मन: ऋग्वेद, १,१६४,१८)। मन ही प्राण का प्रेरक है।
मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन
प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है।
इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की
व्याख्या है-कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं
वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन
विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन
की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन
का जो तेज कर्म की प्रेरण के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है। मन की
शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम
बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की
प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह
पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो।
इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक
मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य
शक्ति प्राप्त हुई है उसके द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के
द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
गायत्री
के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक,
ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। भुव:
अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का
सूचक है। स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति
अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और
पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल
विश्व को वाक् के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए
ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों
मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक
है। यह विश्व प्रजापति की वाक् है। वाक् का अनंत विस्तार है किंतु यदि उसका
एक संक्षिप्त नमूना लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ
कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा
गायत्री है।
विविध धर्म-सम्प्रदायों में गायत्री का भाव:-
हिन्दू - ईश्वर प्राणाधार, दुःखनाशक तथा सुख स्वरूप है । हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें । जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें ।
यहूदी - हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शन कर, मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा ।
शिंतो -
हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें परन्तु हमारे हृदय में
अभद्र भाव उत्पन्न न हों । हमारे कान चाहे अपवित्र बातें सुनें, तो भी
हमारे में अभद्र बातों का अनुभव न हो ।
पारसी -
वह परमगुरु (अहुरमज्द-परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भंडार के कारण, राजा
के समान महान् है । ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकारों से मनुष्य प्रभु
प्रेम का पात्र बनता है ।
दाओ (ताओ) - दाओ (ब्रह्म) चिन्तन तथा पकड़ से परे है । केवल उसी के अनुसार आचरण ही उ8ाम धर्म है ।
जैन - अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार ।
बौद्ध धर्म - मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, मैं संघ की शरण में जाता हूँ ।
कनफ्यूशस - दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा कि तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते ।
ईसाई - हे पिता, हमें परीक्षा में न डाल, परन्तु बुराई से बचा क्योंकि राज्य, पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही है ।
इस्लाम -
हे अल्लाह, हम तेरी ही वन्दना करते तथा तुझी से सहायता चाहते हैं । हमें
सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मार्ग, जो तेरे कृपापात्र बने, न कि उनका, जो
तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए ।
सिख -
ओंकार (ईश्वर) एक है । उसका नाम सत्य है । वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष,
निर्भय, र्निवैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है । वह गुरु की कृपा से जाना जाता
है ।
बहाई -
हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा
करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया है । तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा
नहीं है । तू ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर ।
गायत्री उपासना हम सबके लिए अनिवार्य:-
गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है । वेदों से लेकर धर्मशास्त्रों तक समस्त दिव्य ज्ञान गायत्री के बीजाक्षरों का ही विस्तार है । माँ गायत्री का आँचल पकड़ने वाला साधक कभी निराश नहीं हुआ । इस मंत्र के चौबीस अक्षर चौबीस शक्तियों-सिद्धियों के प्रतीक हैं । गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, ऐसा ऋषिगणों का अभिमत है ।
गायत्री
वेदमाता हैं एवं मानव मात्र का पाप नाश करने की शक्ति उनमें है । इससे
अधिक पवित्र करने वाला और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है । भौतिक
लालसाओं से पीड़ित व्यक्ति के लिए भी और आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले
मुमुक्षु के लिए भी एकमात्र आश्रय गायत्री ही है । गायत्री से आयु, प्राण,
प्रजा, पशु,कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए
गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त
होते हैं ।
भारतीय
संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को नित्य-नियमित गायत्री उपासना
करनी चाहिए । विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का
निर्माण करती है व विभिन्न विपत्तियों, आसन्न विभीषिकाओं से उसकी रक्षा
करती है । प्रस्तुत समय संधिकाल का है । आगामी वर्षों में पूरे विश्व में
तेजी से परिवर्तन होगा । इस विशिष्ट समय में की गयी गायत्री उपासना के
प्रतिफल भी विशिष्ट होंगे । युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा
आचार्य जी ने गायत्री के तत्त्वदर्शन को जन-जन तक पहुँचाया व उसे जनसुलभ
बनाया है । प्रत्यक्ष कामधेनु की तरह इसका हर कोई पयपान कर सकता है । जाति,
मत, लिंग भेद से परे गायत्री सार्वजनीन है । सबके लिए उसकी साधना करने व
लाभ उठाने का मार्ग खुला हुआ है ।
गायत्री उपासना का विधि-विधान;-
गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है । हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है । तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है । शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए ।
उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है -
(१) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है । इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं ।
(अ) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें ।
- ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा ।
- यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
- ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।
(ब) आचमन - वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें । हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए ।
- ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।
- ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।
- ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ।
(स) शिखा स्पर्श एवं वंदन -
शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के
माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे । निम्न मंत्र का उच्चारण
करें ।
- ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते ।
- तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) प्राणायाम -
श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम
में आता है । श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता
श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे
दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं ।
प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए ।
ॐ
भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म
भूर्भुवः स्वः ॐ ।
(य) न्यास -
इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश
तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके ।
बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें
भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।
- ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु । (मुख को)
- ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु । (नासिका के दोनों छिद्रों को)
- ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु । (दोनों नेत्रों को)
- ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु । (दोनों कानों को)
- ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु । (दोनों भुजाओं को)
- ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु । (दोनों जंघाओं को)
- ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु । (समस्त शरीर पर)
आत्मशोधन
की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में
पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति
हो । पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान् के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते
हैं ।
(२) देवपूजन -
गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है । उनका
प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के
माध्यम से आवाहन करें । भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ
गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है ।
- ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि ।
- गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥
ॐ श्री गायत्र्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि ।
(ख) गुरु -
गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है ।
सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए
उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें ।
- ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः ।
- गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
- अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् ।
- तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
- ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।
(ग)
माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता
स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है । इन्हें विधिवत्
संपन्न करें । जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में
आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं । एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन
पाँचों को समर्पित करते चलें । जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता । अक्षत का
अर्थ है - समयदान अंशदान । पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास ।
धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य
का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश ।
ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं । कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है ।
(३) जप -
गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट
नियमित रूप से किया जाए । अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम । होठ हिलते रहें,
किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें । जप प्रक्रिया
कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है ।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
इस
प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम
निरन्तर पवित्र हो रहे हैं । दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो
रही है ।
(४) ध्यान -
जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है । साकार
ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा
प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है । निराकार ध्यान में
गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व
शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है,
जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस
क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है ।
(५) सूर्यार्घ्यदान -
विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की
दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है ।
- ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते ।
- अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
- ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना
यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा
हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है ।
इतना
सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया
जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए । जप के लिए माला तुलसी
या चंदन की ही लेनी चाहिए । सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक
घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है । मौन-मानसिक जप चौबीस
घण्टे किया जा सकता है । माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा
सुमेरु का उल्लंघन न करें ।
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