Sunday, October 18, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय- 29


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय- 29

पुण्यशील-सुशील बोले :

हे विभो! गोलोक को चलो, यहाँ देरी क्यों करते हो? तुमको पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सामीप्य मिला है ॥ १ ॥

कदर्य बोला –

मेरे बहुत कर्म अनेक प्रकार से भोगने योग्य हैं। परन्तु हमारा उद्धार कैसे हुआ जिससे गोलोक को प्राप्त हुआ? ॥ २ ॥

जितनी वर्षा की धाराऐं हैं, जितने तृण हैं, पृथ्वी पर धूलि के कण हैं, आकाश में जितने तारें हैं उतने मेरे पाप हैं ॥ ३ ॥


 
मैंने यह सुन्दर तथा मनोहर शरीर कैसे प्राप्त किया? हे हरि भगवान्‌ के प्रिय! इसका अति उग्र कारण मुझसे कहिये ॥ ४ ॥

श्रीनारायण बोले

कदर्य के इस प्रकार वाणी को श्रवणकर हरि के दूतों ने कहा। हरिदूत बोले – अहो! आश्चर्य है। हे देव! आपने इस पद की प्राप्ति का कारण महान्‌ साधन कैसे नहीं जाना ॥ ५ ॥

हे प्रभु! सब में उत्तमोत्तम, विष्णु का प्रिय, महान्‌ पुण्यफल को देनेवाला, पुरुषोत्तममास नाम से प्रसिद्ध मास को क्यों नहीं जाना? ॥ ६ ॥

उस पुरुषोत्तम मास में देवताओं से भी न होनेवाला तप तुमने किया। हे महाराज! वन में वानर शरीर से अज्ञान में वह तप हुआ ॥ ७ ॥

मुखरोग के कारण अज्ञान से अनाहार व्रत हुआ और तुमने वानरपन की चंचलतावश वृक्ष से फलों को तोड़कर ॥ ८ ॥

पृथ्वी पर फेंका उन फलों से दूसरे मनुष्य तृप्त हुए। अन्तःकरण में विशेष दुःख होने से पानी भी नहीं पान किया ॥ ९ ॥

इस तरह श्रीपुरुषोत्तम मास में अज्ञानवश तुम से तीव्र तप हो गया। हे अनघ! फलों के फेंकने से परोपकार भी हो गया ॥ १० ॥

वन में घूमते-घूमते शीत, वायु, घाम को सहन किया और श्रेष्ठ तीर्थ में सुन्दर महातीर्थ में पाँच दिन गोता लगाया ॥ ११ ॥

जिससे श्रीपुरुषोत्तम मास में तुमको स्नान का पुण्य प्राप्त हो गया। इस प्रकार तुम्हारे रोगी के अज्ञान से उत्तम तप हो गया ॥ १२ ॥

सो यह सब सफल हुआ और तुमने इस समय अनुभव किया। जब बिना समझे पुरुषोत्तम मास के सेवन हो जाने से तुमको यह फल मिला ॥ १३ ॥

तो मनुष्य इस पुरुषोत्तम मास के उत्तम माहात्म्य को जानकर श्रद्धा से विधिपूर्वक कर्म करे तो उसका क्या कहना है ॥ १४ ॥

तुमने अपना जो अर्थ साधन किया वैसा करने को कौन समर्थ है? पुरुषोत्तम भगवान्‌ को और कोई वस्तु प्रीति को देनेवाली नहीं है ॥ १५ ॥

इस भरतखण्ड में अति दुर्लभ मनुष्य योनि में जन्म लेकर जो पुरुषोत्तम भगवान्‌ की सेवा करते हैं। जिस पुरुषोत्तम मास में एक भी उपवास के करने से मनुष्य पापपुञ्ज  से छूट जाता है वहाँ तुमने महीनों उपवास किया इस उग्र तपस्या का फल कहाँ जाऐगा? ॥ १६ ॥

इस मास के समान वे प्राणी धन्य और कृतकृत्य हैं ॥ १७ ॥

वे सदा भाग्यवान्‌ पुण्यकर्म के करनेवाले पवित्र हैं और उनका जन्म सफल है जिनका समय उत्तम पुरुषोत्तम मास स्नान, दान, जप से व्यतीत हुआ है ॥ १८ ॥

श्रीपुरुषोत्तम मास में दान, पितृकार्य, अनेक प्रकार के तप ये सब अन्य मास की अपेक्षा कोटि गुण अधिक फल देने वाले हैं ॥ १९ ॥


 
जो पुरुषोत्तम मास के आने पर स्नान-दान से रहित रहता है उस नास्तिक, पापी, शठ, धर्मध्वज, खल को धिक्कार है ॥ २० ॥

श्रीनारायण बोले :-

पुण्यशील और सुशील से वर्णित अपने अदृष्ट को सुनकर, चकित होता हुआ कदर्य प्रसन्न हो रोमांचित हो गया ॥ २१ ॥

तीर्थ के देवताओं को नमस्कार कर बाद कालञ्जआर पर्वत को नमस्कार किया। और वन के देवताओं को तथा गुल्म, लता वृक्ष को नमस्कार किया ॥ २२ ॥

बाद विनय से युक्त हो विमान की प्रदक्षिणा कर मेघ के समान श्यामर्ण, सुन्दर पीताम्बर को धारण कर वह कदर्य विमान पर सवार हो गया ॥ २३ ॥

सम्पूर्ण देवताओं के देखते हुए गन्धर्व आदि से स्तुत और किन्नर आदिकों से बार-बार बाजा बजाये जाने पर ॥ २४ ॥

इन्द्रादि देवताओं ने प्रसन्न होकर मन्द पुष्पवृष्टि को करते हुए उसका आदरपूर्वक पूजन किया ॥ २५ ॥

फिर आनन्द से युक्त, योगियों को दुर्लभ, गोप-गोपी-गौओं से सेवित, रासमण्डल से शोभित गोलोक को गया ॥ २६ ॥

जरामृत्यु रहित जिस गोलोक में जाकर प्राणी शोक का भागी नहीं होता है, उस गोलोक में यह चित्रशर्मा पुरुषोत्तम मास के सेवन से गया ॥ २७ ॥

व्याज से पुरुषोत्तम मास के सेवन से वानर शरीर छोड़कर दो भुजाधारी मुरली हाथ में लिये पुरुषोत्तम भगवान्‌‍ को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ ॥ २८ ॥

श्रीनारायण बोले – इस आश्चर्य को देखकर समस्त देवता चकित हो गये और श्रीपुरुषोत्तम की प्रशंसा करते अपने-अपने स्थान को गये ॥ २९ ॥

नारद मुनि बोले – हे तपोधन! आपने दिन के प्रथम भाग का कृत्य कहा। पुरुषोत्तम मास के दिन के पिछले भाग में होने वाले कृत्य को कैसे करना चाहिये ॥ ३० ॥

हे बोलनेवालों में श्रेष्ठ! गृहस्थ के उपकार के लिये मुझसे कहिये। क्योंकि आपके समान महात्मा सदा सबके उपकार के लिये विचरण करते रहते हैं ॥ ३१ ॥

श्रीनारायण बोले:-

प्रातःकाल के कृत्य को विधिपूर्वक समाप्त कर, बाद मध्याह्न में होनेवाली सन्ध्या को करके, तर्पण को करे ॥ ३२ ॥

देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्प, दैत्य, प्रेत, पिशाच, नाग ये सब जो अन्न की इच्छा करते हैं वे सब मेरे से दिये गये अन्न को ग्रहण करें ॥ ३३ ॥

अतिथि प्राप्ति के लिये गो दुहने के समय तक द्वार का अवलोकन करे। यदि भाग्य से अतिथि मिल जाए तो ॥ ३६ ॥


 
बुद्धिमान्‌ प्रथम वाणी से सत्कार करके उस अतिथि का देवता के समान पूजन करे और यथाशक्ति अन्न-जल से सन्तुष्ट करे ॥ ३७ ॥

फिर विधिपूर्वक सब व्यञ्जपन से युक्त सिद्ध अन्न से निकाल कर भिक्षु और ब्रह्मचारी को भिक्षा दे ॥ ३८ ॥

संन्यासी और ब्रह्मचारी ये दोनों सिद्ध अन्न के स्वामी हैं। इनको अन्न न देकर भोजन करनेवाला चन्द्रायण व्रत करे ॥ ३९ ॥

प्रथम संन्यासी के हाथ पर जल देकर भिक्षान्न देवे तो वह भिक्षान्न मेरु पर्वत के समान और जल समुद्र के समान कहा गया है ॥ ४० ॥

संन्यासी को जो मनुष्य सत्कार करके भिक्षा देता है उसको गोदान के समान पुण्य होता है इस बात को यमराज भगवान्‌ ने कहा है ॥ ४१ ॥

फिर मौन होकर पूर्वमुख बैठकर शुद्ध और बड़े पात्र में अन्न को रखकर प्रशंसा करते हुए भोजन करे ॥ ४२ ॥

अपने आसन पर अपने बर्तन में एक वस्त्र से भोजन नहीं करे। स्वयम्‌ आसन पर बैठ कर स्वस्थचित्त, प्रसन्न मन होकर ॥ ४३ ॥

जो मनुष्य अकेला ही अपने काँसे के पात्र में भोजन करता है तो उसके आयु, प्रज्ञा, यश और बल ये चार बढ़ते हैं ॥ ४४ ॥

दिन में – ‘सत्यं त्वर्तेन परिपिञ्चामि’ रात्रि में – ‘ऋतं वा सत्येन परिपिञ्चामि’ इस मन्त्र से हाथ में जल लेकर निश्चय कर, घृत व्यञ्जैन युक्त अन्न का भोजन करे ॥ ४५ ॥

भोजन में से कुछ अन्न लेकर इस प्रकार कहे – भूपतये नमः, प्रथम कहकर भुवनपतये नमः, कहे ॥ ४६ ॥

भूतानां पतये नमः, कह कर धर्मराज की बलि देवे फिर चित्रगुप्त को देकर भूतों को देने के लिये यह कहे ॥ ४७ ॥

जिस किसी जगह स्थित, भूख-प्यास से व्याकुल भूतों की तृप्ति के लिये यथासुख यह अक्षय्य अन्न होवे ॥ ४८ ॥

प्राणाय, अपानाय, व्यानाय, उदानाय बाद समानाय कहे ॥ ४९ ॥

प्रणव प्रथम उच्चारण कर, अन्त में स्वाहा पद जोड़ कर घृत के साथ पाँच ग्रास जिह्वा से प्रथम निगल जाए, दाँतों से न दबाये ॥ ५० ॥

फिर तन्मय होकर प्रथम मधुर भोजन करे, नमक के पदार्थ और खट्टा पदार्थ मध्य में, कडुआ तीखा भोजन के अन्त में खाए ॥ ५१ ॥

पुरुष प्रथम द्रव पदार्थ भोजन करे, मध्य में कठिन पदार्थ भोजन करे, अन्त में पुनः पतला पदार्थ भोजन करे तो बल और आरोग्य से रहित नहीं होता ॥ ५२ ॥

मुनि को आठ ग्रास भोजन के लिए कहा है। वानप्रस्थाश्रमी को सोलह ग्रास भोजन के लिये कहा है। गृहस्थाश्रमी को ३२ ग्रास भोजन कहा है और ब्रह्मचारी को अपरिमित ग्रास भोजन के लिये कहा है ॥ ५३ ॥


 
द्विज को शास्त्र के विरुद्ध भक्ष्य भोज्य आदि पदार्थों को नहीं खाना चाहिये। शुष्क और बासी पदार्थ को विद्वानों ने खाने के अयोग्य बतलाया है ॥ ५४ ॥

घृत दूध को छोड़कर अन्य वस्तु सशेष भोजन करे। भोजन के बाद उस शेष को अंगुलियों के अग्र भाग में रख कर ॥ ५५ ॥

अञ्जरलि जल से पूर्ण करे। उसका आधा जल पी जाए और अंगुलियों के अग्र भाग में स्थित शेष को पृथ्वी में देकर ऊपर से अञ्जूलि का शेष आधा जल ॥ ५६ ॥

विद्वान्‌ उसी जगह इस मन्त्र को पढ़ता हुआ सिंचन करे। ऐसा न करने से ब्राह्मण पाप का भागी होता है, फिर प्रायश्चित्त करने से शुद्ध होता है ॥ ५७ ॥

मन्त्रार्थ :-

रौरव नरक में, पीप के गढ़े में पद्म अर्बुद वर्ष तक वास करने वाले तथा इच्छा करने वाले के लिये मेरा दिया हुआ यह जल अक्षय्य होता हुआ प्राप्त हो ॥ ५८ ॥

मन्त्र पढ़ के जल से सिंचन कर दाँतों को शुद्ध करे। आचमन कर गीले हाथ से पात्र को कुछ हटा कर ॥ ५९ ॥

उस भोजन स्थान से उठकर, बाहर बैठकर, स्वस्थ होकर, मिट्टी और जल से मुख-हाथ को शुद्ध कर ॥ ६० ॥

सोलह कुल्ला कर, शुद्ध हो सुख से बैठकर इन दो मन्त्रों को पढ़ता हुआ हाथ से उदर को स्पर्श करे ॥ ६१ ॥

अगस्त्य, कुम्भकर्ण, शनि, बड़वानल और पंचम भीम को आहार के परिपाक के लिये स्मरण करे ॥ ६२ ॥

जिसने आतापी को मारा और वातापी को भी मार डाला, समुद्र का शोषण किया वह अगस्त्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों ॥ ६३ ॥

बाद प्रसन्न मन से श्रीकृष्ण देव का स्मरण करे।  फिर आचमन कर ताम्बूल भक्षण करे ॥ ६४ ॥

भोजन करके बैठ कर परब्रह्म श्रीकृष्ण का उत्तम मार्ग के अविरोधी उत्तम शास्त्रों के विनोद से विचार करे ॥ ६५ ॥

बाद बुद्धिमान्‌ अध्यात्मविद्या का श्रवण करे। सर्वथा आजीविका से हीन मनुष्य भी एक मुहूर्त स्वस्थ मन होकर श्रवण करे ॥ ६६ ॥

श्रवण कर धर्म को जानता है, श्रवण कर पाप का त्याग करता है, श्रवण के बाद मोह की निवृत्ति होती है, श्रवण कर ज्ञानरूपी अमृत को प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥

नीच भी श्रवण करने से श्रेष्ठ हो जाता है और श्रेष्ठ भी श्रवण से रहित होने से नीच हो जाता है ॥ ६८ ॥

फिर बाहर जाकर यथासुख व्यवहार आदि करे और सर्वथा सिद्धि को देनेवाले श्रीकृष्ण भगवान्‌ का मन से ध्यान करे ॥ ६९ ॥

सूर्यनारायण के अस्ताचल जाने के समय तीर्थ में जाकर अथवा गृह में ही पैर धोकर, पवित्र वस्त्र धारण कर, सायंसन्ध्या की उपासना करे ॥ ७० ॥

जो द्विजों में अधम, प्रमाद से सायंसन्ध्या नहीं करता है वह गोवध पाप का भागी होता है और मरने पर रौरव नरक को जाता है ॥ ७१ ॥

कभी समय से न करने पर, संकट में, मार्ग में हो तो द्विजश्रेष्ठ आधी रात के पहले सायंसंध्या को करे ॥ ७२ ॥

जो ब्राह्मण श्रद्धा के साथ प्रातः, मध्याह्न और सायंसन्ध्या की उपासना करता है उसका तेज घृत छोड़ने से अग्नि के समान अत्यन्त बढ़ता है ॥ ७३ ॥

सायंकाल में सूर्यनारायण के आधा अस्त होने पर प्राणायाम कर ‘आपो हिष्ठा’ – इस मंत्र से मार्जन करे ॥ ७४ ॥

और सायंकाल ‘अग्निश्च मा॰ -‘ इस मन्त्र से आचमन करे और प्रातःकाल ‘सूर्यश्च मा॰ -‘ इस मन्त्र से आचमन करे। पश्चिम मुख बैठ कर मौन तथा समाहित मन होकर ॥ ७५ ॥

प्रणय और व्याहृति सहित गायत्री मन्त्र का रुद्राक्ष की माला लेकर तारा के उदय होने तक जप करे ॥ ७६ ॥

वरुण सम्बन्धी ऋचाओं से सूर्यनारायण का उपस्थान कर, प्रदक्षिणा करता हुआ दिशाओं को तथा पृथक्‌-पृथक्‌ दिशाओं के स्वामी को नमस्कार करे ॥ ७७ ॥

सायं सन्ध्या की उपासना कर अग्नि में आहुति देकर भृत्यवर्गों के साथ अल्प भोजन करे। बाद कुछ समय तक बैठ जाए ॥ ७८ ॥

सायंकाल और प्रातःकाल भोजन की इच्छा नहीं होने पर भी वैश्वदेव और बलि कर्म सदा करना चाहिये। यदि नहीं करता है तो पातकी होता है ॥ ७९ ॥

शाम को भोजन कर बैठने के बाद गृहस्थाश्रमी हाथ-पैर धोकर तकिया सहित कोमल शय्या पर जाए ॥ ८० ॥

अपने गृह में पूर्व की ओर सिर करके शयन करे, श्वरसुर के गृह में दक्षिण की ओर शिर करके शयन करे, परदेश में पश्चिम की ओर शिर करके शयन करे, परन्तु उत्तर की ओर शिर करके कभी शयन नहीं करे ॥ ८१ ॥

रात्रिसूक्त का जप करे और सुखशायी देवताओं का स्मरण कर अविनाशी विष्णु भगवान्‌ को नमस्कार कर, स्वस्थचित्त हो, रात्रि में शयन करे ॥ ८२ ॥

अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल, आस्तीक मुनि ये पाँच सुखशायी कहे गये हैं ॥ ८३ ॥

मांगलिक जल से पूर्ण घट को शिर के पास रखकर वैदिक और गारुड़ मन्त्रों से रक्षा करके शयन करे ॥ ८४ ॥


 
ऋतुकाल में स्त्री के पास जाए और सदा अपनी स्त्री से प्रेम करे, ब्रती रति की कामना से पर्व को छोड़ कर अपनी स्त्री के पास जाए ॥ ८५ ॥

प्रदोष और प्रदोष के पिछले प्रहर में वेदाभ्यास करके समय व्यतीत करे। फिर दो पहर शयन करनेवाला ब्रह्मतुल्य होने के योग्य होता है ॥ ८६ ॥

यह सब प्रतिदिन के समस्त कृत्यसमुदाय को कहा। गृहस्थाश्रमी भलीभाँति इसको करे और यही गृहस्थाश्रम का लक्षण है ॥ ८७ ॥

अहिंसा, सत्य वचन, समस्त प्राणी पर दया, शान्ति यथाशक्ति दान करना, गृहस्थाश्रम का धर्म कहा है ॥ ८८ ॥

पर स्त्री से भोग नहीं करना, अपनी धर्मपत्नी की रक्षा करना, बिना दी हुई वस्तु को नहीं लेना, शहद, मांस को नहीं खाना ॥ ८९ ॥

यह पाँच प्रकार का धर्म बहुत शाखा वाला, सुख देनेवाला है। शरीर से होने वाले धर्म को उत्तम प्राणियों को करना चाहिये ॥ ९० ॥

श्रीनारायण बोले – सम्पूर्ण वेदों में कहा हुआ यह उत्तम चरित्र गृहस्थाश्रम का लक्षण है। हे मुनि! इसको लोक के हित के लिये संक्षेप में लक्षण के साथ आपसे मैंने अच्छी तरह कहा ॥ ९१ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे आह्निक कथनं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

प्रतिपदा- प्रथम दिवस पूजन माता शैलपुत्री


प्रतिपदा- प्रथम दिवस पूजन माता शैलपुत्री: 
नवरात्रि के प्रथम दिवस माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है। इनका वाहन वृषभ (बैल) है। शैल शब्द का अर्थ है पर्वत। यह देवी दुर्गा के नौ रूपों में से प्रथम रूप है। माता शैलपुत्री की पूजा से चंद्रमा से संबंधित दोष समाप्त हो जाते हैं। प्रथम दिवस का रंग पीला होता है। माता शैलपुत्री को हिमालय पर्वत की बेटी भी कहा जाता है। इसके पीछे की कथा इस प्रकार है कि एक बार प्रजापति दक्ष (सती के पिता) ने यज्ञ हेतु सभी देवताओं को आमंत्रित किया था लेकिन दक्ष ने भगवान शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा। ऐसे में सती ने यज्ञ में जाने की बात भगवान शिव से कही तो भगवान शिव ने उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण जाना ठीक नहीं लेकिन सती नहीं मानीं और सती पिता के यहां पहुंच गयी लेकिन निमन्त्रण न होने के कारण उन्हें बिन बुलाए मेहमान जैसा व्यवहार ही झेलना पड़ा। उनकी माता के अतिरिक्त किसी ने उनसे प्यार से बात नहीं की। उनकी बहनें उनका उपहास उड़ाती और कठोर व्यवहार दिखाती उन्होने शिव का भी उपहास किया किन्तु अपने पति का अपमान सुनकर वे क्रुद्ध हो गयीं। क्षोभ, ग्लानि और क्रोध में उन्होंने स्वयं को यज्ञ अग्नि में भस्म कर लिया जब यह समाचार भगवान शिव ने सुना तो उन्होने अपने गणों को भेजकर दक्ष का यज्ञ पूरी तरह से विध्वंस करा दिया। 

अगले जन्म में सती ने हिमालय

की पुत्री के रूप में जन्म लिया।

इसीलिए इन्हें शैलपुत्री कहा

जाता है।  

Friday, October 16, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-28


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-28

श्रीनारायण बोले :-

चित्रगुप्त धर्मराज के वचन को सुनकर अपने योद्धाओं से बोले – यह कदर्य प्रथम बहुत समय तक अत्यन्त लोभ से ग्रस्त हुआ, बाद चोरी करना शुरू किया ॥ १ ॥

इसलिये यह प्रथम प्रेतशरीर को प्राप्त कर बाद वानर शरीर में जाए, तब हम इसको बहुत-सी नरकयातना देंगे ॥ २ ॥

हे भट लोग! धर्मराज के गृह में यही क्रम श्रेष्ठ है। इस प्रकार चित्रगुप्त से आज्ञा प्राप्त होने पर भयंकर ॥ ३ ॥

भट लोगों ने चित्रगुप्त की आज्ञानुसार शीघ्र वैसा ही किया और उस ब्राह्मण को पीटते हुए प्रथम प्रेतशरीर में करके फलरहित वन में रखा ॥ ४ ॥

वह ब्राह्मण प्रेत योनि को प्राप्त कर उस निर्जन गहन वन में क्षुधा-तृषा से अत्यन्त व्याकुल होकर भ्रमण करने लगा ॥ ५ ॥

प्रेतयोनि में होनेवाले दुःख को भोग कर बाद फलों के चोरी करने से होने वाली वानर योनि को गया ॥ ६ ॥सुन्दर शीतल जल और छाया तथा फल-पुष्प से युक्त जम्बू खण्ड के मनोहर सुन्दर कालञ्जोर पर्वत पर ॥ ७ ॥

वहाँ इन्द्र से बनाया हुआ उत्तम कुण्ड है। मानसरोवर के समान पवित्र, सत्पुरुषों से सेवित, पापों का नाश करने वाला ॥ ८ ॥

देवताओं को भी दुर्लभ ‘मृगतीर्थ’ नाम से प्रसिद्ध था। जिसमें श्राद्ध करने से पितर लोग सद्‌गति को चले जाते हैं ॥ ९ ॥

वहाँ पर देवता लोग दैत्यों के भय से मृग होकर निरन्तर, निर्भय स्नान करने लगे। इसलिये विद्वान्‌ लोग उस कुण्ड को मृगतीर्थ कहते हैं ॥ १० ॥

मनुष्य शरीर को प्राप्त कर यह ब्राह्मण वहाँ पर फलों के चोरी करने के पाप से प्रथम वानर शरीर को प्राप्त हुआ ॥ ११ ॥

नारद  मुनि बोले – त्रैलोक्य को पवित्र करने वाले रमणीय मृगतीर्थ में पापकोटि से युक्त वह दुष्ट वानर कैसे वास करता रहा? ॥ १२ ॥

हे नाथ! हे तपोधन! मेरे मन के सन्देह को काटो। क्योंकि आपके समान गुरुजनों का अपने शिष्यों के विषय में कभी भी गोप्य  नहीं होता है ॥ १३ ॥

सूतजी बोले – हे विप्रलोग! इस प्रकार नारद मुनि से प्रेरित होने पर अत्यन्त प्रसन्न तपोनिधि नारायण भगवान्‌ नारद मुनि का सत्कार करते हुए बोले ॥ १४ ॥

श्रीनारायण बोले –

कोई चित्रकुण्डल नाम का महान्‌ वैश्य था। पतिव्रत धर्म में परायण तारका नाम की उस वैश्य की स्त्री थी ॥ १५ ॥

उन दोनों ने भक्ति से पवित्र श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत किया। जब श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत करते उन दोनों का श्रीपुरुषोत्तम मास बीत गया ॥ १६ ॥

अन्तिम वाले दिन के आने पर स्त्री के साथ हर्ष से युक्त श्रद्धापूर्वक चित्रकुण्डल ने उद्यापन किया ॥ १७ ॥

पुरुषोत्तममास के उद्यापन विधि करने के लिये वेद और वेदांग को जानने वाले गुणी स्त्री सहित ब्राह्मणों को बुलाया ॥ १८ ॥

हे नारद! वहाँ पर धन के लोभ से कदर्य भी आया। उद्यापन विधि के पूर्ण होने पर चित्रकुण्डल ने ॥ १९ ॥

बहुत बड़े दानों से उन सपत्नी क ब्राह्मणों को प्रसन्न किया। उन समस्त ब्राह्मणों के प्रसन्न होने पर भूयसी दक्षिणा को दिया ॥ २० ॥

उस दी हुई भूयसी दक्षिणा से प्रसन्न अन्य सब ब्राह्मण गृह को गये परन्तु अत्यन्त लोभी कदर्य उस वैश्य चित्रकुण्डल के सामने रोता हुआ खड़ा हो गया ॥ २१ ॥

और विनय से नम्र होकर गद्‌गद वाणी से बोला – हे चित्रकुण्डल! हे वैश्येश! हे भगवद्भक्ति के सूर्य! ॥ २२ ॥

आपने पुरुषोत्तम मास का व्रत विधि से अच्छी तरह किया। इस तरह पृथ्वी तल में कहीं पर किसी ने नहीं किया ॥ २३ ॥

आप कृतार्थ हो, सर्वथा भाग्यवान्‌ हो जो तुमने परम भक्ति से पुरुषोत्तम भगवान्‌ का सेवन किया ॥ २४ ॥तुम्हारे पिता धन्य हैं और तुम्हारी पतिव्रता माता धन्य हैं। जिन दोनों ने तुम्हारे समान हरिवल्ल भ पुत्र को पैदा किया ॥ २५ ॥

यह पुरुषोत्तम मास धन्य से भी धन्य है। जिसके सेवन से मनुष्य इस लोक के और परलोक के फल को प्राप्त करता है ॥ २६ ॥

हे विशांपते! तुम्हारी इस पूजा को देखकर मैं चकित हो गया। अहो! तुमने बहुत बड़ा काम किया इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥

हर्ष से दूसरे ब्राह्मणों को भी बहुत-सा धन दिया। हे भूरिद! भाग्यहीन मेरे लिए क्यों नहीं देते हो? ॥ २८ ॥

इस प्रकार कदर्य के कहने पर चित्रकुण्डल वैश्य ने कदर्य को धन दिया। कदर्य ने धन को लेकर प्रसन्नता से उसको जमीन में गाड़ दिया ॥ २९ ॥

वहाँ पर कदर्य ने श्रीपुरुषोत्तम की बड़ी पूजा देखी और धन के लोभ से पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा की ॥ ३० ॥

पूजा के दर्शन माहात्म्य से और पुरुषोत्तम भगवान्‌ की स्तुति से तथा धन का लोभ होने पर भी मृगतीर्थ को आया ॥ ३१ ॥

सूतजी बोले – 

दर्शन से, स्तुति से, धन के लोभ करने से भी दुष्ट वानर को उत्तम तीर्थ का सेवन हुआ ॥ ३२ ॥

हे द्विजलोग! श्रद्धा से आदरपूर्वक पुरुषोत्तम देव के दर्शन और स्तुति में तत्पर सपत्नीक के पुण्य का क्या कहना है? ॥ ३३ ॥

नारद मुनि बोले :-

 हे ब्राह्मण सुन्दर वृक्षों से शोभित, सुन्दर शीतल जल वाले, मनोहर घनी छायावाले वन में उसके रहने का कारण क्या है? सो आप कहिये ॥ ३४ ॥

श्रीनारायण बोले:-

हे नारद! हे अनघ! तुम सुनो, सुनने की इच्छा करनेवाले तुमको मैं कहूँगा। इसमें कुछ कारण है जिसके श्रवण से पापों का नाश हो जाता है ॥ ३५ ॥

जब समस्त अर्थ और फलों के दाता दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी ने समुद्र में सेतु बाँधकर दुष्ट रावण का नाश किया ॥ ३६ ॥

उन रामचन्द्रजी ने विभीषण को छोड़कर बाकी समस्त राक्षसों का वध किया किसी को नहीं छोड़ा। बाद अग्नि में परीक्षा कर सीता को ग्रहण किया ॥ ३७ ॥

ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवता रावण के वध से प्रसन्न होकर बोले कि हे राम! तुम वर को माँगो ॥ ३८ ॥

ऐसा कहने पर भक्तों को अभय करने वाले रामचन्द्र बोले – हे देवता लोग! यदि इस समय वरदान देना है तो सुनो ॥ ३९ ॥

यहाँ पर राक्षसों से शूर वानर मारे गये हैं उनको हमारी आज्ञा से अमृत वृष्टि कर शीघ्र जीवित कर दो ॥ ४० ॥

‘तथास्तु’ यह कह कर ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि देवताओं ने अमृत की वृष्टि करके वानरों को जीवित कर दिया ॥ ४१ ॥तदनन्तर वे जयशाली समस्त वानर जीवित हो गये और चिर-काल तक शयन कर उठे हुए के समान देखने में आये। बाद रामचन्द्र ॥ ४२ ॥

चारों तरफ बैठे हुए समस्त वानरों के साथ पुष्पक विमान पर सवार होकर प्रसन्न मुखकमल वाले सपत्नीक रामचन्द्र बोले ॥ ४३ ॥

श्रीरामचन्द्रजी बोले:-

हे सुग्रीव! हे हनुमन्‌! हे तारात्मज! हे जाम्बवान्‌! वानरों के साथ आप लोगों ने मित्र का समस्त कार्य किया ॥ ४४ ॥

आप लोग उन वानरों को आज्ञा दो, जिसमें यहाँ से आप लोगों की आज्ञा पाकर वानर अपनी-अपनी इच्छानुसार जंगलों में जाऐ ॥ ४५ ॥

हमारे ये दीर्घजीवी वानर जहाँ-जहाँ वास करें वहाँ के वृक्ष पुष्प फलों से युक्त हो जाऐ ॥ ४६ ॥

नदी मीठे जलवाली हो, शीतल जल वाले सुन्दर तालाब हों, इनको कोई भी मना नहीं करे। हमारी आशा से समस्त वानर जाऐं ॥ ४७ ॥

इसीलिए रामचन्द्र के प्रभाव से जहाँ वानर जाति के लोग वास करते हैं वहाँ वन में मीठे जलवाली नदी और सुंदर तालाब होते हैं ॥ ४८ ॥

पुष्प पत्र से युक्त, सुन्दर फलवाले बहुत से वृक्ष हैं परन्तु अदृष्ट से होनेवाले पूर्वजन्म के सुखदुःख ॥ ४९ ॥

जहाँ-जहाँ प्राणी निवास करता है वहाँ-वहाँ अवश्य जाते हैं क्योंकि बिना भोगे कर्म का नाश नहीं है। ऐसी वेद की आज्ञा है ॥ ५० ॥

श्रीनारायण बोले:-

फिर वहाँ पर यह लालची वानर पर्वत के समान बढ़ता हुआ भूख-प्यास से युक्त पीड़ित वन में विचरण करने लगा ॥ ५१ ॥

उसके मुख में पित्त के प्रकोप से पीड़ा उत्पन्न हुई जो उसका जन्म का रोग था। जिस पीड़ा से मुख के घावों से दिन-रात रुधिर बहा करता है ॥ ५२ ॥

अत्यन्त पीड़ा के कारण कुछ भी भोजन नहीं कर सकता था और वह वानर चंचलतावश वृक्षों में से उत्तम फलों को तोड़ कर ॥ ५३ ॥

मुख के पास ले जाकर बहुत से फलों को जमीन में गिरा दिया करता था। वहाँ वानर पीड़ा के कारण कहीं भी एक स्थान पर बैठने में असमर्थ था ॥ ५४ ॥

एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाता हुआ मृत्यु को सुख देनेवाला मानने लगा। किसी समय पृथ्वी पर गिर पड़ा और अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगा ॥ ५५ ॥

शरीर के टूट जाने से जलहीन मछली के समान तड़पता हुआ रोदन करने लगा। शिथिल शरीर वाला, गलित मुखवाला वह वानर भूख-प्यास से पीड़ित हो गया ॥ ५६ ॥

उसके समस्त दांत मुखरोग से पीड़ित होकर गिर गये। पूर्व जन्म के कृत पाप से इस तरह दुःख को प्राप्त हुआ ॥ ५७ ॥

इस प्रकार नित्यप्रति निराहार रहते हुए वानर को देवयोग से श्रीपुरुषोत्तम मास आया ॥ ५८ ॥उस पुरुषोत्तम मास में भी उसी प्रकार शीतवात आदि से पीड़ित रहा। किसी समय बहुल पक्ष में गहन वन में विचरण करता हुआ ॥ ५९ ॥

प्यासा वानर कुण्ड के पास पहुँचने पर भी जलपान करने को समर्थ नहीं हुआ, भूख से युक्त भी चपलता से वहाँ ऊँचे वृक्ष के ऊपर चढ़ गया ॥ ६० ॥

एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाते हुए उसके बीच में एक कुण्ड आ पड़ा। बहुत दिनों से निराहार शिथिल इन्द्रिय और जर्जर शरीर वाला ॥ ६१ ॥

निर्बल, शिथिल प्राणवाला कुण्ड के तटभाग में आया। इस प्रकार दशमी तिथि से चार दिन तक वानर को ॥ ६२ ॥

श्रीपुरुषोत्तम मास में उस कुण्ड में लोट-पोट करते बीत गये। पाँचवे दिन के आनेपर मध्याह्न काल में ॥ ६३ ॥

उस तीर्थ में जल से भींगा शरीरवाला वानर प्राण से रहित होकर गिर गया और वह उस देह को त्याग कर पापों से रहित होकर ॥ ६४ ॥

तत्काल दिव्य आभूषणों से भूषित दिव्य देह को प्राप्त किया जो कि नीलकमल के दल के समान श्यामवर्ण, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर ॥ ६५ ॥

चमकते हुए रत्नों  से जटित किरीटधारी, सुन्दर शोभमान मत्स्यकुण्डल वाला, शोभमान पवित्र पीतवस्त्रधारी, कमर में रत्नोंर से जटित मेखला वाला ॥ ६६ ॥

शोभमान बाजूबन्द, कंकण, अँगूठी, हार से शोभित, नीलवर्ण के टेढ़े चिकने बालों से आवृत सुन्दर मुख था ॥ ६७ ॥

उसी समय शीघ्र वहाँ वैष्णवों से युक्त विमान आया जिसमें भेरी, मृदंग, पटह, वेणु, वीणा का महान्‌ शब्द हो रहा है ॥ ६८ ॥

और देवांगनाओं का नाच हो रहा है, गन्धर्व किन्नर के सुन्दर गान हो रहे हैं ऐसे उस विमान को महाभाग दिव्यदेहधारी वानर देखकर ॥ ६९ ॥

अत्यन्त विस्मय को प्राप्त हो कहने लगा कि पातकी मेरे को यह सुख कैसे हुआ? यह विमान-सुख बड़े पुण्यात्मा को ही होना उचित है ॥ ७० ॥

इसके बाद कोई देवांगना उसके ऊपर चन्द्रमा के समान श्वेत छत्र को धारण करती हुई। कोई दो अप्सरायें हर्ष से उसको दोनों तरफ चामर को डुला रही हैं ॥ ७१ ॥

कोई पान हाथ में लिये खड़ी है और उसके सामने अप्सरायें नाच कर रही हैं। कोई गंगाजल से भरी हुई झारी को लिये खड़ी है ॥ ७२ ॥

कोई उसके सामने खड़ी गाने बजाने में तत्पर हैं। इस प्रकार उस वैभव को देखकर चित्र में बने हुए मे समान निश्चल हो गया ॥ ७३ ॥

यह क्या है? मुझ दुष्ट पातकी को किस पुण्य से यह सब प्राप्त हुआ, मेरा कुछ भी पुण्य नहीं है जिसमें मैं हरि भगवान्‌ के परम पद को जाऊँ ॥ ७४ ॥

श्रीनारायण बोले 

इस प्रकार तर्क करते हुए कदर्य ने सुख का बहुत बड़ा खजाना दिव्य विमान को सामने देखकर आश्चर्य किया। बाद हरिभटों ने उस कदर्य का हार्दिक अभिप्राय जानकर उसके सामने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उसके चरणों में नमस्कार कर वानरशरीर को त्यागे हुए उस कदर्य को सुन्दर वचन कहा ॥ ७५ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे श्रीपुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कदर्योपाख्याने कपिजन्मनि विमानगमनं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

Thursday, October 15, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय - 27


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय - 27

श्रीनारायण बोले:-

इस प्रकार कह कर मौन हुए मुनिश्वर बाल्मीकि मुनि को सपत्नीक राजा दृढ़धन्वा ने नमस्कार किया। बाद प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक पूजन किया ॥ १ ॥

उस राजा दृढ़धन्वा से की हुई पूजा को लेकर आशीर्वाद  दिया। तुम्हारा कल्याण हो। पापों का नाश करने वाली सरयू नदी को मैं जाऊँगा ॥ २ ॥

इस समय हम दोनों को इस प्रकार बात करते सायंकाल हो गया है। यह कह कर मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि मुनि शीघ्र चले गये ॥ ३ ॥

राजा दृढ़धन्वा भी सीमा तक बाल्मीकि मुनि को पहुँचा कर अपने घर लौट आया। घर जाकर अपनी गुणसुन्दरी नामक सुन्दरी स्त्री से बोला ॥ ४ ॥

राजा दृढ़धन्वा बोला:-

अयि सुन्दरी! राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इन छः शत्रुओं से युक्त, गन्धर्व नगर के समान इस असार संसार में मनुष्यों को क्या सुख है? ॥ ५ ॥

कीट विष्टा भस्म रूप और वात पित्त कफ इनसे युक्त मल, मूत्र, रक्त से व्याप्त ऐसे इस शरीर से मेरा क्या प्रयोजन है ॥ ६ ॥

हे वरारोहे!:-

अध्रुव शरीर से ध्रुववस्तु एकत्रित करने के लिये पुरुषोत्तम का स्मरण कर वन को जाता हूँ ॥ ७ ॥

तब वह गुणसुन्दरी ऐसा सुन के विनय से नम्रता युक्त तथा शुद्धता से हाथ जोड़ अपने पति से बोली ॥ ८ ॥

गुणसुन्दरी बोली :-

हे नृपते! मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी, पतिव्रता स्त्रियों के पति ही देवता हैं ॥ ९ ॥

जो स्त्री पति के जाने पर पुत्र के गृह में रहती है, वह स्त्री पुत्रवधू के आधीन हो पराये गृह में कुत्ते के समान रहती है ॥ १० ॥

पिता स्वल्प देता है और भाई भी स्वल्प ही देता है अत्यन्त देनेवाले पति के साथ कौन स्त्री न जाएगी? ॥ ११ ॥

इस प्रकार प्रिया की बात को स्वीकार कर पुत्र का अभिषेक कर स्त्री सहित शीघ्र ही मुनियों से सेवित वन को गया ॥ १२ ॥

दोनों स्त्री-पुरुष हिमालय के समीप गंगाजी के निकट जाकर पुरुषोत्तम मास के आनेपर दोनों काल में स्नान करने लगे ॥ १३ ॥

हे नारद! वहाँ पुरुषोत्तम मास को प्राप्त कर विधि से पुरुषोत्तम का स्मरण कर भार्या सहित तपस्या करने लगे ॥ १४ ॥

ऊपर हाथ किये बिना अवलम्ब पैर के अंगूठे पर स्थिर आकाश में दृष्टि लगाये निराहार होकर राजा श्रीकृष्ण का जप करने लगे ॥ १५ ॥

इस प्रकार व्रत की विधि में स्थित हुए तपोनिधि राजा की पतिव्रता रानी सेवा में तत्पर हुई ॥ १६ ॥

इस प्रकार तप करते हुए राजा का पुरुषोत्तम मास सम्पूर्ण होने पर घंटिमाओं के जल से विभूषित विमान वहाँ आया ॥ १७ ॥

ऐसे तत्काल आये हुए पुण्यशील और सुशील सेवित विमान को देख स्त्री सहित राजा आश्चर्य युक्त हो ॥ १८ ॥

विमान में बैठे हुए पुण्यशील और सुशील को नमस्कार किया। पुनः वे स्त्री सहित राजा को विमान में बैठने की आज्ञा दिये ॥ १९ ॥

स्त्री सहित राजा विमान में बैठ के सुन्दर नवीन शरीर धारण कर तत्काल गोलोक को गये ॥ २० ॥

इस प्रकार पुरुषोत्तम मास में तप करके भय रहित लोक को प्राप्त होकर हरि के निकट आनन्द करने लगे ॥ २१ ॥

और पतिव्रता स्त्री भी पुरुषोत्तम में तप करते हुए पति की सेवा कर उसी लोक को प्राप्त हुई ॥ २२ ॥

श्रीनारायण बोले :-

हे नारद! मेरी एक जिह्वा है इस समय इसका क्या वर्णन करूँ? इस पृथ्वी पर पुरुषोत्तम के समान कुछ भी नहीं है ॥ २३ ॥

सहस्र जन्म में तप करने से जो फल प्राप्त नहीं होता है वह फल पुरुषोत्तम के सेवन से पुरुष को प्राप्त हो जाता है ॥ २४ ॥

श्री पुरुषोत्तम मास में बुद्धि पूर्वक अथवा अबुद्धि पूर्वक किसी भी बहाने यदि उपवास, स्नान, दान और जप आदि किया जाए तो करोड़ों जन्म पर्यन्त किये पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे दुष्ट बन्दर ने अबुद्धि पूर्वक तीन रात तक पुरुषोत्तम मास में केवल स्नान कर लिया तो उसके पूर्व जन्म के समस्त कुकर्मों का नाश हो गया ॥ 

और वह बन्दर भी दिव्य शरीर धारण कर विमान पर चढ़कर जरामरण रहित गोलोक को प्राप्त हुआ ॥ २८ ॥

इसलिये यह पुरुषोत्तम मास संपूर्ण मासों में अत्यन्त श्रेष्ठ मास है क्योंकि इसके बिना जाने से ही पुरुषोत्तम मास में किये गये स्नानमात्र से दुष्ट वानर को हरि भगवान्‌ के समीप पहुँचाया ॥ २९ ॥

अहो आश्चर्य है! श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन जो नहीं करनेवाले हैं वे महामूर्ख हैंऔर जो करते है। वे धन्य हैं और कृतकृत्य हैं तथा उनका जन्म सफल है ॥ ३० ॥

जो पुरुष श्रीपुरुषोत्तम मास का विधि के साथ स्नान, दान, जप, हवन, उपवासपूर्वक सेवन करते हैं ॥ ३१ ॥

नारद मुनि बोले :-

वेद में समस्त अर्थों का साधन करनेवाला मनुष्य शरीर कहा गया है। परन्तु यह वानर भी व्याज से पुरुषोत्तम मास का सेवन कर साक्षात्‌ मुक्त हो गया ॥ ३२ ॥

हे तपोनिधे! संपूर्ण प्राणियों के कल्याण के निमित्त मुझसे इस कथा को कहिये। इस वानर ने तीन रात्रि तक स्नान कहाँ पर किया? ॥ ३३ ॥

यह वानर कौन था? आहार क्या करता था? उत्पन्न कहाँ हुआ? कहाँ रहता था? और श्रीपुरुषोत्तम मास में व्याज से उसको क्या पुण्य हुआ? ॥ ३४ ॥

यह सब विस्तार से सुनने की इच्छा करने वाले मेरे से कहिये। आप से कथामृत श्रवण करते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती है ॥ ३५ ॥

श्रीनारायण बोले –

उसी कर्म से लोक में कदर्यनाम से प्रसिद्ध था। उसके पिता ने भी प्रथम उसका नाम चित्रशर्मा रखा था ॥ ३७ ॥

उस कदर्य ने सुन्दर अन्न, सुन्दर वस्त्र का किसी समय उपभोग नहीं किया। उस कुबुद्धि ने अग्नि में आहुति, पितरों का श्राद्ध भी नहीं किया ॥ ३८ ॥

यश के लिये कुछ नहीं किया और आश्रित वर्ग का पोषण नहीं किया। अन्याय से धन को इकट्‌ठा कर पृथ्वी में गाड़ दिया ॥ ३९ ॥

माघमास में उसने कभी तिलदान नहीं किया। कार्तिक मास में दीपदान और ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया ॥ ४० ॥

वैशाख मास में धान्य का दान नहीं किया और व्यतीपात योग में सुवर्ण का दान नहीं किया। वैधृति योग में चाँदी का दान नहीं किया और ये सब दान ॥ ४१ ॥

कभी सूर्य संक्रान्ति काल में नहीं दिया। चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण के समय न जप किया और न अग्नि में आहुति दी ॥ ४२ ॥

सर्वत्र नेत्रों में आँसू भरकर दीन वचन कहा करता था। वर्षा, वायु, आतप से दुःखित, दुबला और काले शरीर वाला वह मूर्ख ॥ ४३ ॥

सर्वदा धन के लोभ से पृथ्वी पर घूमा करता था। ‘कोई भी इस पामर को कुछ दे देता’ इस तरह बार-बार कहता हुआ ॥ ४४ ॥

गौ के दोहन समय तक कहीं भी ठहरने में असमर्थ था। लोक के प्राणियों के धिक्कारने से जला हुआ और उद्विग्ना मन होकर घूमता था ॥ ४५ ॥

उसका मित्र कोई बनेचर बाटिका का मालिक था। उस कदर्य ने उस माली से बार-बार रोते हुए अपने दुख को कहा ॥ ४६ ॥

नगर के वासी मेरा नित्य तिरस्कार करते हैं इसलिये उस नगर में मैं नहीं रह सकता हूँ ॥ ४७ ॥

इस प्रकार कहते हुए उस कदर्य ब्राह्मण के अत्यन्त दीन वचन को सुन कर माली दयार्द्र चित्त हो गया ॥ ४८ ॥

शरण में आये हुए उस दीन ब्राह्मण पर माली ने दया कर कहा कि हे कदर्य! इस समय तुम इसी वाटिका में वास करो ॥ ४९ ॥

नगरवासियों से तिरस्कृत हुआ वह कदर्य उस माली के वचन को सुन प्रसन्न होकर उस वाटिका में रहने लगा ॥ ५० ॥

नित्य उस माली के पास वास करता और उसकी आज्ञा का पालन करता था। इसलिये उस कदर्य में माली ने दृढ़ विश्वास किया ॥ ५१ ॥

और उस कदर्य में अत्यन्त विश्वास होने के कारण माली ने उस कदर्य ब्राह्मण को अपने से छोटा बगीचे का मालिक बना दिया ॥ ५२ ॥

इसके बाद उस माली ने यह निश्चय किया कि कदर्य हमारा आदमी है। इसलिये वाटिका की चिन्ता को छोड़कर राजमन्दिर का सेवन किया ॥ ५३ ॥

राजा के यहाँ उस माली को बहुत कार्य रहता था इसलिए और पराधीनतावश वाटिका की ओर वह कभी नहीं आया ॥ ५४ ॥

वह अत्यन्त दुर्बल कदर्य उस वाटिका के फलों को आनन्द से अच्छी तरह भोजन करता और लोभवश बचे हुए फलों को बेंच देता था ॥ ५५ ॥

निर्भय पूर्वक उस बगीचा के फलों को बेंचकर सब धन स्वयं ले लेता था। जब माली पूछता था तो उसके सामने झूठ बोलता था कि ॥ ५६ ॥

नगर मैं फिरता-फिरता, भिक्षा माँगता-माँगता और खाता-खाता तुम्हारे वन की रक्षा करता हूँ ॥ ५७ ॥

फिर भी पक्षीगण इस बगीचे के फलों को महीने में आकर खा जाते हैं। देखिये, मैंने कुछ खाते हुए पक्षियों को अच्छी तरह से मार डाला है ॥ ५८ ॥

यहाँ चारों तरफ उन पक्षियों के मांस और पंख गिरे पड़े हैं उन मांस के टुकड़ों को और पंखों को देखकर उसका अत्यन्त विश्वास कर माली चला गया ॥ ५९ ॥

इस प्रकार अत्यन्त जर्जर उस दुष्ट कदर्य के वास करते ८७ (सत्तासी) वर्ष व्यतीत हो गये। बाद ॥ ६० ॥

वह मूढ़ वहाँ ही मर गया और उसको अग्नि और काष्ठ भी नहीं मिला। बिना भोगे पापों का नाश नहीं होता है ऐसा वेद के जानने वाले कहते हैं ॥ ६१ ॥

इस कारण हाहाकार करता हुआ यमद्रूतों के मुद्‌गर के आघात से पीड़ित कष्ट के साथ अत्यन्त भयंकर दीर्घ मार्ग को गया ॥ ६२ ॥

पूर्व में किये हुए कर्मों को स्मरण करता हुआ और प्रलाप करता हुआ तथा बुद्‌बुद‌ अक्षरों में कहता हुआ कि अहो! आश्चर्य है। मुझ दुष्ट कदर्य के अज्ञान को देखिये ॥ ६३ ॥

कृष्णसार से युक्त पवित्र इस भारतखण्ड में देवताओं को भी दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर ॥ ६४ ॥

मैंने धन के लोभ से क्या किया? अर्थात्‌ कुछ भी नहीं किया और मैंने जन्म व्यर्थ में खोया तथा मैंने बहुत दिनों में जो धन संचय किया था वह धन तो पराधीन हो गया ॥ ६५ ॥

इस समय कालपाश में बँधा पराधीन होकर क्या करूँ? प्रथम मनुष्य शरीर को प्राप्त कर कुछ भी पुण्यकर्म नहीं किया ॥ ६६ ॥

न तो दान दिया, न अग्नि में आहुति दी, न हिमालय की गुफा में जाकर तपस्या की, मकर के सूर्य होने पर माघ मास में न गंगा के जल का सेवन किया ॥ ६७ ॥

पुरुषोत्तम मास के अन्त में तीन दिन उपवास भी नहीं किया और कार्तिक मास में तारागण के रहते प्रातः स्नान नहीं किया ॥ ६८ ॥

मैंने पुरुषार्थ को देनेवाले मनुष्य शरीर को भी पुष्ट नहीं किया। अहो! आश्चर्य है। मेरा संचित धन पृथ्वी में निरर्थक गड़ा रह गया ॥ ६९ ॥

दुष्ट बुद्धि होने के कारण जीवनपर्यन्त जीव को कष्ट दिया और मैंने जठराग्नि को भी कभी अन्न से तृप्त नहीं किया ॥ ७० ॥

किसी पर्व के समय भी उत्तम वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं किया। न तो जाति के लोगों को, न बान्धवों को, न स्वजनों को, न बहिनों को ॥ ७१ ॥

न दामाद को, न कन्या को, न पिता-माता, छोटे भाई को, न पतिव्रता स्त्री को, न ब्राह्मणों को प्रसन्न किया ॥ ७२ ॥

इन लोगों को एक बार भी मिठाई से कभी तृप्त नहीं किया। इस प्रकार विलाप करते हुए उस कदर्य को यमदूत यमराज के समीप ले गये ॥ ७३ ॥

उसको देखकर चित्रगुप्त ने उसके पाप-पुण्य को देखा और अपने स्वामी धर्मराज से कहा कि हे महाराज! यह ब्राह्मणों में अधम कृपण है ॥ ७४ ॥

धन के लोभी:-

इस दुष्ट कदर्य का कुछ भी पुण्य नहीं है। वाटिका में रह कर इसने बहुत पाप किया है ॥ ७५ ॥

माली का विश्वा्सपात्र बन कर साक्षात्‌ स्वयं फलों को चुराया और जो-जो पके हुए फल थे उनको खाया ॥ ७६ ॥

और जो खाने से बचे हुए फल थे उनको इस दुष्ट ने धन के लोभ से बेच डाला। एक फलों के चोरी का पाप, दूसरा विश्वासघात का पाप ॥ ७७ ॥

हे प्रभु! ये दो पाप इस कृपण में अत्यन्त उग्र हैं और भी इसमें कई प्रकार के अनेक पाप हैं ॥ ७८ ॥

नारद मुनि बोले:-

इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त के वचन को सुन कर अत्यन्त क्रोध से युक्त धर्मराज ने कहा कि यह कदर्य एक हजार बार वानर योनि में जाए और विश्वासघात का फल इसको इसके बाद मिलेगा ॥ ७९ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे कदर्योपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-26



पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-26


अब उद्यापन के पीछे व्रत के नियम का त्याग कहते हैं। बाल्मीकि मुनि बोले – सम्पूर्ण पापों के नाश के लिये गरुड़ध्वज भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये धारण किये व्रत नियम का विधि पूर्वक त्याग कहते हैं ॥ १ ॥

हे राजन्‌! नक्तव्रत करनेवाला मनुष्य समाप्ति में ब्राह्मणों को भोजन करावे और बिना माँगे जो कुछ मिल जाए उसको खा कर रहने में सुवर्णदान करना ॥ २ ॥

अमावस्या में भोजन का नियम पालन करने वाला दक्षिणा के साथ गोदान देवे। और जो आँवला जल से स्नान करता है वह दही अथवा दूध का दान देवे ॥ ३ ॥

हे राजन्‌! फलों का नियम किया है तो फलों का दान करे। तेल का नियम किया है अर्थात्‌ तैल छोड़ा है तो समाप्ति में घृतदान करे और घृत का नियम किया है तो दूध का दान करे ॥ ४ ॥

हे राजन्‌! धान्यों के नियम में गेहूँ और शालि चावल का दान करे। हे राजन्‌ यदि पृथ्वी में शयन का नियम किया है तो रूई भरे हुए गद्देृ और चाँदनी के सहित ॥ ५ ॥

अपने को सुख देने वाली तकिया आदि रख कर शय्या का दान करे, वह मनुष्य भगवान्‌ को प्रिय होता है। जो मनुष्य पत्र में भोजन करता है वह ब्राह्मणों को भोजन करावे, घृत चीनी का दान करे ॥ ६ ॥

मौनव्रत में सुवर्ण के सहित घण्टा और तिलों का दान करे। सपत्नीक ब्राह्मण को घृतयुक्त पदार्थ से भोजन करावे ॥ ७ ॥

हे राजन्‌! नख तथा केशों को धारण करने वाला बुद्धिमान्‌ दर्पण का दान करे। जूता का त्याग किया है तो जूता का दान करे ॥ ८ ॥

लवण के त्याग में अनेक प्रकार के रसों का दान करे। दीपत्याग किया है तो पात्र सहित दीपक का दान करे ॥ ९ ॥

जो मनुष्य पुरुषोत्तम मास में भक्ति से नियमों का पालन करता है वह सर्वदा बैकुण्ठ में निवास करता है। ताँबे के पात्र में घृत और सुवर्ण की बत्ती रख कर दीपक का दान करे ॥ १० ॥

व्रत की पूर्ति के लिये पलमात्र का ही दान देवे। एकान्त में वास करने वाला आठ घटों का दान करे ॥ ११ ॥

वे घट सुवर्ण के हों या मिट्टी के उनको वस्त्र और सुवर्ण के टुकड़ों के सहित देवे। और मास के अन्त में छाता-जूता के साथ ३० (तीस) मोदक का दान करे ॥ १२ ॥

और भार ढोने में समर्थ बैल का दान करे। इन वस्तुओं के न मिलने पर अथवा यथोक्त करने में असमर्थ होने पर ॥ १३ ॥

हे राजन्‌! सम्पूर्ण व्रतों की सिद्धि को देने वाला ब्राह्मणों का वचन कहा गया है अर्थात्‌ ब्राह्मण से सुफल के मिलने पर व्रत पूर्ण हो जाता है। जो मलमास में एक अन्न का सेवन करता है ॥ १४ ॥

वह चतुर्भुज होकर परम गति को पाता है। इस लोक में एकान्न से बढ़कर दूसरा कुछ भी पवित्र नहीं है ॥ १५ ॥

एक अन्न के सेवन से मुनि लोग सिद्ध होकर परम मोक्ष को प्राप्त हो गये। अधिकमास में जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह राजा होता है ॥ १६ ॥

वह मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त करता है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। देवता लोग दिन के पूर्वाह्ण में भोजन करते हैं और मुनि लोग मध्याह्न में भोजन करते हैं ॥ १७ ॥

अपराह्ण में पितृगण भोजन करते हैं। इसलिये अपने लिये भोजन का समय चतुर्थ प्रहर कहा गया है। हे नराधिप! जो सब बेला को अतिक्रमण कर चतुर्थ प्रहर में भोजन करता है ॥ १८ ॥

हे जनाधिप! :-

उसके ब्रह्महत्यादि पाप नाश हो जाते हैं। हे महीपाल! रात्रि में भोजन करने वाला समस्त पुण्यों से अधिक पुण्य फल का भागी होता ॥ १९ ॥

और वह मनुष्य प्रतिदिन अश्व मेध यज्ञ के करने का फल प्राप्त करता है। भगवान्‌ के प्रिय पुरुषोत्तम मास में उड़द का त्याग करे ॥ २० ॥

वह उड़द छोड़ने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है। जो पातकी ब्राह्मण होकर यन्त्र में तिल पेरता है ॥ २१ ॥

हे राजन्‌! वह ब्राह्मण तिल की संख्या के अनुसार उतने वर्ष पर्यन्त रौरव नरक में वास करता है फिर चाण्डाल योनि में जाता है और कुष्ठ रोग से पीड़ित होता है ॥ २२ ॥

जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि में उपवास करता है वह मनुष्य चतुर्भुज हो गरुड़ पर बैठ कर बैकुण्ठ लोक को जाता है ॥ २३ ॥

और वह देवताओं से पूजित तथा अप्सराओं से सेवित होता है। एकादशी व्रत करनेवाला दशमी और द्वादशी के दिन एक बार भोजन करे ॥ २४ ॥

जो मनुष्य देवाधिदेव विष्णु भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ व्रत करता है वह मनुष्य स्वर्ग को जाता है। हे राजन्‌! सर्वदा भक्ति से कुशा का मुट्ठा धारण करे, कुशमुष्टि का त्याग न करे ॥ २५ ॥

जो मनुष्य कुशा से मल, मूत्र, कफ, रुधिर को साफ करता है वह विष्ठा में कृमियोनि में जाकर वास करता है ॥ २६ ॥

कुशा अत्यन्त पवित्र कहे गये हैं, बिना कुशा की क्रिया व्यर्थ कही गई है क्योंकि कुशा के मूल भाग में ब्रह्मा और मध्य भाग में जनार्दन वास करते हैं ॥ २७ ॥

कुशा के अग्रभाग में महादेव वास करते हैं इसलिये कुशा से मार्जन करे। शूद्र जमीन से कुशा को न उखाड़े और कपिला गौ का दूध न पीवे ॥ २८ ॥

हे भूपति! पलाश के पत्र में भोजन न करे, प्रणवमन्त्र का उच्चारण न करे, यज्ञ का बचा हुआ अन्न न भोजन करे ॥ २९ ॥

शूद्र कुशा के आसन पर न बैठे, जनेऊ को धारण न करे और वैदिक क्रिया को न करे। यदि विधि का त्याग कर मनमाना काम करता है तो वह शूद्र अपने पितरों के सहित नरक में डूब जाता है ॥ ३० ॥

चौदह इन्द्र तक नरक में पड़ा रहता है फिर मुरगा, सूकर, बानर योनि को जाता है ॥ ३१ ॥

इसलिये शूद्र हमेशा प्रणव का त्याग करे। हे भूमिप! शूद्र ब्राह्मणों के नमस्कार करने से नष्ट हो जाता है ॥ ३२ ॥

हे महाराज! इतना करने से व्रत परिपूर्ण कहा है। अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा न देने से मनुष्य नरक के भागी होते हैं ॥ ३३ ॥

व्रत में विघ्न होने से अन्धा और कोढ़ी होता है ॥ ३४ ॥

हे भूप! मनुष्यों में श्रेष्ठ मनुष्य पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के वचन से स्वर्ग को जाते हैं। हे भूप! इसलिये कल्याण को चाहने वाला विद्वान्‌ मनुष्य उन ब्राह्मणों के वचनों का उल्लंघन न करे ॥ ३५ ॥

यह मैंने उत्तम, कल्याण को करनेवाला, पापों का नाशक, उत्तम फल को देनेवाला माधव भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाला, मन को प्रसन्न करने वाला धर्म का रहस्य कहा इसका नित्य पाठ करे ॥ ३६ ॥

हे राजन्‌! जो इसको हमेशा सुनता है अथवा पढ़ता है वह उत्तम लोक को जाता है जहाँ पर योगीश्वऽर हरि भगवान्‌ वास करते हैं ॥ ३७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे गृहीतनियमत्यागो नाम षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥

Wednesday, October 14, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय– 25


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय– 25

दृढ़धन्वा बोला:-

हे ब्राह्मन‌! हे मुनि! अब आप पुरुषोत्तम मास के व्रत करने वाले मनुष्यों के लिए कृपाकर उद्यापन विधि को अच्छी तरह से कहिए ॥ १ ॥

बाल्मीकि मुनि बोले – पुरुषोत्तम मास व्रत के सम्पूर्ण फल की प्राप्ति के लिए श्रीपुरुषोत्तम मास के उद्यापन विधि को थोड़े में अच्छी तरह से कहूँगा ॥ २ ॥

पुरुषोत्तम मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी, नवमी अथवा अष्टमी को उद्यापन करना कहा है ॥ ३ ॥

इस पवित्र पुरुषोत्तम मास में प्रातःकाल उठकर यथालब्ध पूजन के सामान से पूर्वाह्न की क्रिया को कर ॥ ४ ॥

एकाग्र मन होकर सदाचारी, विष्णुभक्ति में तत्पर, स्त्री सहित ऐसे तीस ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे ॥ ५ ॥

हे भूपति! अथवा यथाशक्ति अपने धन के अनुसार सात अथवा पाँच ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे, बाद मध्याह्न के समय सोलह सेर ॥ ६ ॥

अथवा उसका आधा अथवा उसका आधा यथाशक्ति पंचधान्य से उत्तम सर्वतोभद्र बनावे ॥ ७ ॥

बाद सर्वतोभद्र मण्डल के ऊपर सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी के छिद्र रहित शुद्ध चार कलश स्थापन करना चाहिये ॥ ८ ॥

चार व्यूह के प्रीत्यर्थ चारों दिशाओं में बेल से युक्त, उत्तम वस्त्र से वेष्टित, पान से युक्त उन कलशों को करना ॥ ९ ॥

उन चारों कलशों पर क्रम से वासुदेव, हलधर, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध देव को स्थापित करे ॥ १० ॥

पुरुषोत्तम मास व्रत के आरम्भ में स्थापित किये हुए राधिका सहित देवदेवेश पुरुषोत्तम भगवान्‌ को कलशयुक्त ॥ ११ ॥

वहाँ से लाकर मण्डल के ऊपर मध्यभाग में स्थापित करे। वेद-वेदांग के जानने वाले वैष्णव को आचार्य बनाकर ॥ १२ ॥

जप के लिए चार ब्राह्मणों का वरण करे। उनको अँगूठी के सहित दो-दो वस्त्र देना चाहिये ॥ १३ ॥

प्रसन्न मन से वस्त्र-आभूषण आदि से आचार्य को विभूषित करके फिर शरीरशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त गोदान करे ॥ १४ ॥

तदनन्तर स्त्री के साथ पूर्वोक्त विधि से पूजा करनी चाहिए। और वरण किए हुए चार ब्राह्मणों से चार व्यूह का जप कराना चाहिए ॥ १५ ॥

और चार दिशाओं में चार दीपक ऊपर के भाग में स्थापित करना चाहिये। फिर नारियल आदि फलों से क्रम के अनुसार अर्ध्यदान करना चाहिए ॥ १६ ॥

घुटनों के बल से पृथ्वी में स्थित होकर पञ्च रत्न और यथालब्ध अच्छे फलों को दोनों हाथ में लेकर ॥ १७ ॥

श्रद्धा भक्ति से युक्त स्त्री के साथ हर्ष से युक्त हो प्रसन्न मन से श्रीहरि भगवान्‌ का स्मरण करता हुआ अर्ध्यदान करे ॥ १८ ॥

अर्ध्यदान का मन्त्र – हे देवदेव! हे पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है। हे हरि! राधिका के साथ आप मुझसे दिये गये अर्ध्य को ग्रहण करें ॥ १९ ॥

नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण, दो भुजाधारी, मुरली हाथ में धारण किये, पीताम्बरधारी, देव, राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार है ॥ २० ॥

इस प्रकार भक्ति के साथ राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को नमस्कार करके चतुर्थ्यन्त नाममन्त्रों से तिल की आहुति देवे ॥ २१ ॥

इसके बाद उनके मन्त्रों से तर्पण और मार्जन करे। बाद राधिका के सहित पुरुषोत्तम देव की आरती करे ॥ २२ ॥

अब नीराजन का मन्त्र-कमल के दल के समान कान्ति वाले, राधिका के रमण, कोटि कामदेव के सौन्दर्य को धारण करनेवाले देवेश का प्रेम से नीराजन करता हूँ ॥ २३ ॥

अथ ध्यान मन्त्र-अनन्त रत्नों  से शोभायमान सिंहासन पर स्थित, अन्तर्ज्योति स्वरूप, वंशी शब्द से अत्यन्त मोहित व्रज की स्त्रियों से घिरे हुए हैं इसलिये वृन्दावन में अत्यन्त शोभायमान, राधिका और कौस्तुभमणि से चमकते हुए हृदय वाले शोभायमान रत्नों  से जटित किरीट और कुण्डल को धारण करनेवाले, आप नवीन पीताम्बर को धारण किए हैं इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान्‌ का ध्यान करें ॥ २४ ॥

फिर राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ को पुष्पाञ्जंलि देकर स्त्री के साथ साष्टांग नमस्कार करे ॥ २५ ॥

नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण पीतवस्त्रधारी, अच्युत, श्रीवत्स चिन्ह से शोभित उरस्थल वाले राधिका सहित हरि भगवान्‌ को नमस्कार है ॥ २६ ॥

ब्राह्मण को सुवर्ण के साथ पूर्णपात्र देवे। बाद प्रसन्नता के साथ आचार्य को बहुत-सी दक्षिणा दे ॥ २७ ॥

सपत्नीक आचार्य को भक्ति से वस्त्र आभूषण से प्रसन्न करे, फिर ऋत्विजों को उत्तम दक्षिणा दे ॥ २८ ॥

बछड़ा सहित, वस्त्र सहित, दूध देनेवाली, सुशीला गौ को घण्टा आभूषण से भूषित करके उसका दान करना चाहिये ॥ २९ ॥

ताँबे का पीठ, सुवर्ण का श्रृंग, चाँदी के खुर से भूषित कर देवे, बाद घृतपात्र दे और उसी प्रकार तिलपात्र दे ॥ ३० ॥

स्त्री-पुरुष को पहिनने के लिए उमा-महेश्वर के प्रीत्यर्थ वस्त्र का दान करे। आठ प्रकार का पद दे और एक जोड़ा जूता दे ॥ ३१ ॥

यदि शक्ति हो तो आयु की चंचलता को विचारता हुआ वैष्णव ब्राह्मण को श्रीमद्भागवत का दान करे, देरी नहीं करे ॥ ३२ ॥

श्रीमद्भागवत साक्षात्‌ भगवान्‌ का अद्भुत रूप है। जो वैष्णव पण्डित ब्राह्मण को दे ॥ ३३ ॥

तो वह कोटि कुल का उद्धार कर अप्सरागणों से सेवित विमान पर सवार हो योगियों को दुर्लभ गोलोक को जाता है ॥ ३४ ॥

हजारों कन्यादान सैकड़ों वाजपेय यज्ञ, धान्य के साथ क्षेत्रों के दान और जो तुलादान आदि ॥ ३५ ॥

आठ महादान हैं और वेददान हैं वे सब श्रीमद्भागवत दान की सोलगवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ ३६ ॥

इसलिये श्रीमद्भागवत को सुवर्ण के सिंहासन पर स्थापित कर वस्त्र-आभूषण से अलंकृत कर विधिपूर्वक वैष्णव ब्राह्मण को दे ॥ ३७ ॥

काँसे के ३० (तीस) सम्पुट में तीस-तीस मालपूआ रखकर ब्राह्मणों को दे॥ ३८ ॥

हे पृथ्वीपति! हर एक मालपूआ में जितने छिद्र होते हैं उतने वर्ष पर्यन्त बैकुण्ठ लोक में जाकर वास करता है ॥ ३९ ॥

बाद योगियों को दुर्लभ, निर्गुण गोलोक को जाता है। जिस सनातन ज्योतिर्धाम गोलोक को जाकर नहीं लौटते हैं ॥ ४० ॥

अढ़ाई सेर काँसे का सम्पुट कहा गया। निर्धन पुरुष यथाशक्ति व्रतपूर्ति के लिये सम्पुट दान करे ॥ ४१ ॥

अथवा पुरुषोत्तम भगवान्‌ के प्रीत्यर्थ मालपूआ का कच्चा सामान, फल के साथ सम्पुट में रखकर दे ॥ ४२ ॥

हे नराधिप! निमन्त्रित सपत्नीेक ब्राह्मणों को पुरुषोत्तम भगवान्‌ के समीप संकल्प करके देवे ॥ ४३ ॥

अब प्रार्थना लिखते हैं :-

हे श्रीकृष्ण! हे जगदाधार! हे जगदानन्ददायक! अर्थात्‌ हे जगत्‌ को आनन्द देने वाले! मेरी समस्त इस लोक तथा परलोक की कामनाओं को शीघ्र पूर्ण करें ॥ ४४ ॥

इस प्रकार गोविन्द भगवान्‌ की प्रार्थना कर प्रसन्नता पूर्वक पुरुषोत्तम भगवान्‌ का स्मरण करता हुआ स्त्रीसहित सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे ॥ ४५ ॥

ब्राह्मणरूप हरि और ब्राह्मणीरूप राधिका का स्मरण करता हुआ भक्ति पूर्वक गन्धाक्षत से पूजन कर घृत पायस का भोजन करावे ॥ ४६ ॥

व्रत करने वाला विधिपूर्वक भोजन सामान का संकल्प करे। अंगूर, केला, अनेक प्रकार के आम के फल ॥ ४७ ॥

घी के पके हुए, सुन्दर उड़द के बने बड़े, चीनी घी के बने घेवर, फेनी, खाँड़ के बने मण्डक ॥ ४८ ॥

खरबूजा, ककड़ी का शाक, अदरख, सुन्दर नीबू, आम और अनेक प्रकार के अलग-अलग शाक ॥ ४९ ॥

इस प्रकार षट्‌रसों से युक्त चार प्रकार का भोजन सुगन्धित पदार्थ से वासित गोरस को परोस कर, कोमल वाणी बोलता हुआ ॥ ५० ॥

यह स्वादिष्ट है, इसको आपके लिए तैयार किया है, प्रसन्नता के साथ भोजन कीजिये। हे ब्राहम्ण‌! हे प्रभु! जो इस पकाये हुए पदार्थों में अच्छा मालूम हो उसको माँगिये ॥ ५१ ॥

मैं धन्य हूँ, आज मैं ब्राह्मणों के अनुग्रह का पात्र हुआ, मेरा जन्म सफल हुआ, इस प्रकार कह कर आनन्द पूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराकर ताम्बूल और दक्षिणा दे ॥ ५२ ॥

इलायची, लौंग, कपूर, नागरपान, कस्तूरी, जावित्री, कत्था और चूना ॥ ५३ ॥

इन सब पदार्थों को मिलाकर भगवान्‌ के लिये प्रिय ताम्बूल को देना चाहिये। इसलिये इन सामानों से युक्त करके ही आदर के साथ ताम्बूल देना चाहिए ॥ ५४ ॥

जो इस प्रकार ताम्बूल को ब्राह्मण श्रेष्ठ के लिये देता है वह इस लोक में ऐश्वर्य सुख भोग कर परलोक में अमृत का भोक्ता होता है ॥ ५५ ॥

स्त्री के साथ ब्राह्मणों को प्रसन्न कर हाथ में मोदक देवे और ब्राह्मणियों को विधिपूर्वक वस्त्र आभूषण से अलंकृत कर वंशी दे ॥ ५६ ॥

सीमा तक उन ब्राह्मणों को पहुँचाकर विसर्जन करे। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ॥ यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥ १ ॥ इस मन्त्र से पुरुषोत्तम भगवान्‌ को क्षमापन समर्पण करके ॥ ५७ ॥

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु ॥ न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो बन्दे तमच्युतम्‌ ॥ १ ॥ इस मन्त्र से जनार्दन भगवान्‌ को नमस्कार कर जो कुछ कमी रह गई हो वह अच्युत भगवान्‌ की कृपा से पूर्ण फल देनेवाला हो यह कहकर यथासुख विचरे ॥ ५८ ॥

अन्न का यथाभाग विभाग कर भूतों को देकर मिथ्याभाषण से रहित हो, अन्न की निन्दा न करता हुआ कुटुम्बजनों के साथ भोजन करे ॥ ५९ ॥

अमावस्या के दिन रात्रि में जागरण करे। सुवर्ण की प्रतिमा में राधिका के सहित पुरुषोत्तम भगवान्‌ का पूजन करे ॥ ६० ॥

पूजा के अन्त में सपत्नीक व्रती प्रसन्नचित्त हो नमस्कार कर राधिका के साथ पुरुषोत्तम देव का विसर्जन करे ॥ ६१ ॥

फिर आचार्यं को मूर्ति के सहित चढ़ा हुआ सामान को देवे। अपनी इच्छानुसार यथायोग्य अन्नुदान को देवे ॥ ६२ ॥

जिस किसी उपाय से इस व्रत को करे और उत्तम भक्ति से द्रव्य के अनुसार दान देवे ॥ ६३ ॥

स्त्री अथवा पुरुष इस व्रत को करने से जन्म-जन्म में दुःख, दारिद्रय और दुर्भाग्य को नहीं प्राप्त होते हैं ॥ ६४ ॥जो लोग इस व्रत को करते हैं वे इस लोक में अनेक प्रकार के मनोरथों को प्राप्त करके सुन्दर विमान पर चढ़कर श्रेष्ठ बैकुण्ठ लोक को जाते हैं ॥ ६५ ॥

श्रीनारायण बोले:-

इस प्रकार जो पुरुष श्रीकृष्ण भगवान्‌ का प्रिय पुरुषोत्तम मासव्रत विधिपूर्वक आदर के साथ करता है वह इस लोक के सुखों को भोगकर और पापराशि से मुक्त होकर अपने पूर्व पुरुषों के साथ गोलोक को जाता है ॥ ६६ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये दृढधन्वोपाख्याने व्रतोद्यापनविधिकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

Tuesday, October 13, 2020

पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-24


पुरुषोत्तम मास माहात्म्य अध्याय-24

मणिग्रीव बोला :-

हे द्विज! विद्वानों से पूर्ण और सुन्दर चमत्कारपुर में धर्मपत्नी के साथ में रहता था ॥ १ ॥

धनाढ़य, पवित्र आचरण वाला, परोपकार में तत्पर मुझको किसी समय संयोग से दुष्ट बुद्धि पैदा हुई ॥ २ ॥

दुष्ट बुद्धि के कारण मैंने अपने धर्म का त्याग किया, दूसरे की स्त्री का सेवन किया और नित्य अपेय वस्तु का पान किया ॥ ३ ॥

चोरी हिंसा में तत्पर रहता था, इसलिए बन्धुओं ने मेरा त्याग किया। उस समय महाबलवान्‌ राजा ने मेरा घर लूट लिया ॥ ४ ॥

बाद बचा हुआ जो कुछ धन था उसको बन्धुओं ने ले लिया। इस प्रकार सभी से तिरस्कृत होने के कारण वन में निवास किया ॥ ५ ॥

स्त्री के साथ इस घोर वन में निवास करते हुए मुझ दुरात्मा का नित्य जीवों का वध कर जीवन-निर्वाह होता है ॥ ६ ॥

हे ब्राहम्ण! इस समय आप मुझ पातकी पर अनुग्रह करें। प्राचीन पुण्य के समूह से आप इस घोर वन में आये हैं ॥ ७ ॥

हे महामुनि! स्त्री के साथ मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप उपदेशरूप प्रसाद से कृतार्थ करने के योग्य हैं ॥ ८ ॥

जिस उपाय के करने से मेरी तीव्र दरिद्रता इसी क्षण में नष्ट हो जाए और अतुल वैभव को प्राप्त कर यथासुख विचरूँ ॥ ९ ॥

उग्रदेव बोला :-

 हे महाभाग! तुम कृतार्थ हो गये। जो तुमने मेरा अतिथि-सत्कार किया इसलिए इस समय स्त्रीसहित तुमको होनेवाले कल्याण को कहता हूँ ॥ १० ॥

जो बिना व्रत के, बिना तीर्थ के, बिना दान के, बिना प्रयास के तुम्हारी दरिद्रता दूर हो जायगी, ऐसा मैंने विचार किया है ॥ ११ ॥

इसके बाद तीसरा श्रीपुरुषोत्तम मास आने वाला है उस पुरुषोत्तम मास में सावधानी के साथ विधिपूर्वक तुम दोनों स्त्री-पुरुष ॥ १२ ॥

श्रीपुरुषोत्तम भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिये दीप-दान करना। उस दीप-दान से तुम्हारी यह दरिद्रता जड़ से नष्ट हो जायगी ॥ १३ ॥

तिल के तेल से दीप-दान करना चाहिये। विभव के होने पर घृत से दीप-दान करना चाहिये। परन्तु इस समय वन में वास करने के कारण घृत अथवा तेल इनमें से तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है ॥ १४ ॥

हे अनघ! मणिग्रीव! पुरुषोत्तम मास भर स्त्री के साथ नियमपूर्वक इंगुदी के तेल से तुम दीप-दान करना ॥ १५ ॥

स्त्री के साथ इस तालाब में नित्य स्नान करके दीप-दान करना। इसी प्रकार तुम इस वन में एक मास व्रत करना ॥ १६ ॥

तुम्हारे अतिथिसत्कार से प्रसन्न मैंने यह वेद में कहा हुआ तुम दोनों स्त्री-पुरुष के लिये उपदेश किया है ॥ १७ ॥

विधिहीन भी दीप-दान करने से मनुष्यों को लक्ष्मी की वृद्धि होती है। यदि पुरुषोत्तम मास में विधिपूर्वक दीप-दान किया जाए तो क्या कहना है ॥ १८ ॥

वेद में कहे हुए कर्म और अनेक प्रकार के दान पुरुषोत्तम मास में दीप-दान की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ १९ ॥

समस्त तीर्थ, समस्त शास्त्र पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला को नहीं पा सकते हैं ॥ २० ॥

योग, दान, सांखय, समस्त-तन्त्र भी पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला को नहीं पा सकते हैं ॥ २१ ॥

कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि समस्त व्रत पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ २२ ॥

वेद का प्रतिदिन पाठ करना, गयाश्राद्ध, गोमती नदी के तट का सेवन पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते ॥ २३ ॥

हजारों ग्रहण, सैकड़ों व्यतीपात पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ २४ ॥

कुरुक्षेत्र आदि श्रेष्ठ क्षेत्र, दण्डक आदि वन पुरुषोत्तम मास के दीप-दान की सोलहवीं कला की बराबरी नहीं कर सकते हैं ॥ २५ ॥

हे वत्स! यह अत्यन्त गुप्त व्रत जिस किसी से कहने लायक नहीं है। यह धन, धान्य, पशु, पुत्र, पौत्र और यश को करनेवाला है ॥ २६ ॥

वन्ध्या स्त्री के बाँझपन को नाश करनेवाला है और स्त्रियों को सौभाग्य देनेवाला है। राज्य से गिरे हुए राजा को राज्य देनेवाला है और प्राणियों को इच्छानुसार फल देनेवाला है ॥ २७ ॥

यदि कन्या व्रत करती है तो गुणी चिरञ्जीवी पति को प्राप्त करती है, स्त्री की इच्छा करने वाला पुरुष सुशीला और पतिव्रता स्त्री को प्राप्त करता है ॥ २८ ॥

विद्यार्थी विद्या को प्राप्त करता है। सिद्धि को चाहने वाला अच्छी तरह सिद्धि को प्राप्त करता है। खजाना को चाहने वाला खजाना को प्राप्त करता है। मोक्ष को चाहने वाला मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ २९ ॥

बिना विधि के, बिना शास्त्र के जो पुरुषोत्तम मास में जिस किसी जगह दीप-दान करता है वह इच्छानुसार फल को प्राप्त करता है ॥ ३० ॥

हे वत्स! विधिपूर्वक नियम से जो दीप-दान करता है तो फिर कहना ही क्या है? इसलिये पुरुषोत्तम मास में दीप-दान करना चाहिये ॥ ३१ ॥

मैंने इस समय यह तीव्र दरिद्रता को नाश करने वाला दीप-दान तुमसे कहा, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी सेवा से मैं प्रसन्न हूँ ॥ ३२ ॥

अगस्त्य मुनि बोले :-

इस प्रकार वह श्रेष्ठ ब्राह्मण मन से दो भुजावाले मुरली को धारण करने वाले श्रीहरि भगवान्‌ का स्मरण करते हुए प्रयाग को गये ॥ ३३ ॥

वे दोनों अपने आश्रम से उग्रदेव के पीछे जाकर उनके पास कुछ मासपर्यन्त वास करके, प्रसन्न मन हो, दोनों स्त्री-पुरुष उग्रदेव को नमस्कार कर, फिर अपने आश्रम को चले आये ॥ ३४ ॥

अपने आश्रम में आकर भक्ति से पुरुषोत्तम में मन लगाकर, ब्राह्मण की भक्ति में तत्पर उन दोनों स्त्री-पुरुष ने दो मास बिताया ॥ ३५ ॥

दो मास बीत जाने पर श्रीमान्‌ पुरुषोत्तम मास आया, उस पुरुषोत्तम मास में वे दोनों गुरुभक्ति में तत्पर हो दीप-दान को करते हुए ॥ ३६ ॥

आलस्य को छोड़कर वे दोनों ऐश्वर्य के लिए इंगुदी के तेल से दीप-दान करते रहे। इस प्रकार दीप-दान करते उन दोनों को श्रीपुरुषोत्तम मास बीत गया ॥ ३७ ॥

उग्रदेव ब्राह्मण के प्रसाद से शुद्धान्तःकरण होकर समय पर काल के वशीभूत हो इन्द्र की पुरी को गये ॥ ३८ ॥

वहाँ होनेवाले सुखों को भोग कर पृथ्वी पर भारतखण्ड में उग्रदेव के प्रसाद से श्रेष्ठ जन्म को उन दोनों स्त्री-पुरुष ने धारण किया ॥ ३९ ॥

पूर्व जन्म में जो तुम मृग की हिंसा में तत्पर मणिग्रीव थे वह वीरबाहु के पुत्र चित्रबाहु नाम से प्रसिद्ध राजा हुए ॥ ४० ॥

इस समय यह चन्द्रकला नामक जो तुम्हारी स्त्री है वह पूर्व जन्म में सुन्दरी नाम से तुम्हारी स्त्री थी ॥ ४१ ॥

पतिव्रत धर्म से यह तुम्हारे अर्धांग की भागिनी है। जो स्त्री पतिव्रता होती हैं वे अपने पति के पुण्य का आधा भाग लेनेवाली होती हैं ॥ ४२ ॥

श्रीपुरुषोत्तम मास में इंगुदी के तेल से दीप-दान करने से तुमको यह निष्कण्टक राज्य मिला ॥ ४३ ॥

जो पुरुष श्रीपुरुषोत्तम मास में घृत से अथवा तिल के तेल से अखण्ड दीप-दान करता है तो फिर कहना ही क्या है ॥ ४४ ॥

पुरुषोत्तम मास में दीप-दान का यह फल कहा है इसमें कुछ सन्देह नहीं है। जो उपवास आदि नियमों से श्रीपुरुषोत्तम मास का सेवन करता है तो उसका कहना ही क्या है ॥ ४५ ॥

बाल्मीकि मुनि बोले – इस प्रकार अगस्त्य मुनि राजा चित्रबाहु के पूर्व जन्म का वृत्तान्त कहकर और राजा चित्रबाहु से किए गये सत्कार को लेकर तथा अक्षय आशीर्वाद देकर चले गये ॥ ४६ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढ़धन्वोपाख्याने दीपमाहात्म्य कथनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

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