सुदेव शर्मा ब्राह्मण और शुकदेव की मृत्यु वृतांत
देवऋषि नारदजी ने भगवान से पूछा– हे कृपा के सिन्धु! उसके बाद जागृत अवस्था को प्राप्त उस राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ? सो मुझसे कहिये जिसके सुनने से पापों का नाश कहा गया है|
श्री नारायण बोले – राजा दृढ़धन्वा अपने पूर्वजन्म की कहानी सुनकर अति आश्चर्य से भर उठे| सुदेव ब्राह्मण के रूप में अपने पूर्व जन्म की इतनी कथा सुनने के पश्चात् आगे का विवरण जानने की उनकी आकांशा और भी अधिक बलवती हो उठी थी| अत: उन्होंने महर्षि बाल्मीकि से आगे की कथा सुनने की विनती की|
अपने पूर्व जन्म के चरित्र को सुनने से आश्चर्ययुक्त तथा और सुनने की इच्छा रखनेवाले राजा दृढ़धन्वा से बाल्मीकि ऋषि फिर बोले – हे राजन! अपनी पत्नी की ऐसी कर्णप्रिय शीतल वाणी को सुनकर सुदेव शर्मा धैर्य धारण कर श्री हरि भगवान् में चित्त को लगाता हुआ, उनके ध्यान में मग्न रहकर जीवन व्यतीत करने लगा| कुछ समय पश्चात एक दिन सुदेव शर्मा ने दीर्घ श्वास लेकर दीनमुख हो कर सोचा की जो होनेवाला है वह होगा, ऐसा मन में निश्चय कर कुशा, फल-फूल, समिधा आदि लेने के लिये वन की ओर चले गये, और श्री हरि के चिन्तन में लग गए| इस प्रकार करते उस सुदेव शर्मा का कितना ही समय बीत गया। बाद में किसी दिन वो समिधा, कुश, फल, पुष्प आदि के लेने के लिये वन को गए, वहाँ जाकर सुदेव शर्मा मन से श्री हरि भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करने लगे।
उसी दिन उनका पुत्र शुकदेव भी अपने मित्रों के साथ स्नान और जल क्रीडा़ करने हेतु एक सरोवर पर चला गया| ग्रीष्म ऋतु थी, बावली में प्रवेश कर समवयस्क मित्रों के साथ जलयन्त्रों से जल फेंकता हुआ और बार-बार हँसता हुआ खेलने लगा| गर्मी की ऋतु में बार-बार जल में खेलता हुआ हर्ष को प्राप्त हुआ। इस तरह खेलते हुए सभी बालक सरोवर में आगे बढते गये| खेल ही खेल में बालकों ने शुकदेव को गहरे जल की और भगा दिया| शुकदेव स्वयं भी अन्य बालको से बचने की लिए उस तरफ आगे चला गया|
देववशात या भाग्य से प्रेरित हो, अपने श्वाँस को रोक कर, अपने मित्रों को छलने की इच्छा से, उसने गहरे पानी में गोता लगाया|
खेल-खेल में ही शुकदेव जल में इतना नीचे उतर गया की वह अपने को संभाल ना सका| बहुत व्याकुल होकर वह जल से निकलने का प्रयत्न करने लगा, लेकिन वह ऐसा कर न सका और उसकी मृत्यु हो गई|
जल से जब शुकदेव बाहर नहीं निकला, तो वे सब समवयस्क मित्र बालक चकित होकर हाहाकार करते हुए बहुत जोर से दौड़े और अत्यन्त शोक से ग्रस्त उन बालको ने ये समाचार उसकी माता गौतमी को आकर सुनाया| उन बालकों के अत्यन्त अप्रिय वज्रपात के समान वचन को सुनकर पुत्र से अति प्रेम करने वाली वह गौतमी तुरन्त पृथ्वी पर मुर्छित हो कर गिर गई। उसी समय वन से सुदेव शर्मा घर वापस आये थे और पुत्र की मृत्यु का सम्वाद सुनकर वह भी कटे वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर गये|
काफी समय तक विलाप करने और पड़ोसियों के एकत्रित होने के बाद वे सभी उस सरोवर पर गये| और शुकदेव के शव को सरोवर से बाहर निकाल लिया|
मृत पुत्र का आलिंगन कर उसके शरीर को गोद में लेकर सुदेव शर्मा बारम्बार पुत्र का मुख चूमने लगा| इसके बाद, अपनी गोद में स्थित मृत पुत्र को बार-बार देखता हुआ, रोता-विलाप करता, गद्गद अक्षर से बोला – हे पुत्र! मेरे शोक को नाश करने वाले, शीतल, सुन्दर और शुभ वचनों को बोलो। हे वत्स! मेरे मन को प्रसन्न करो|
हे वत्स! वृद्ध माता-पिता को छोड़कर तुम्हारा इस प्रकार जाना उचित नहीं है| हे पुत्र! वेदाध्यन के लिये तुम्हारा श्रेष्ठ मित्र तुम्हे बुला रहा है| और बड़े हर्ष से पढ़ाने के लिये उपाध्याय भी तुमको बुला रहे हैं। हे पुत्र! शीघ्र उठो। इस समय क्यों सो रहे हो? तुमको छोड़कर घर नहीं जाऊँगा। घर में मेरा क्या काम है?। तुम्हारे बिना इस समय मेरा घर शून्य जंगल के समान हो गया है|
तुमको फल मूल प्रिय हो तो मेरे सामने उठो। यदि नहीं उठोगे तो वन को भी नहीं जाऊँगा। वन में क्या काम है? मैंने कोई निन्दित काम नहीं किया और ब्रह्म हत्या भी नहीं की फिर किस कर्म के फल से मेरा पुत्र मर गया|
अहो! ब्रह्मा! तुमने ऐसा करके कौन-सा बड़ा फल प्राप्त किया? हे निर्दयी! वृद्ध, दीन मेरे नेत्र को लेकर निर्धन का धन और दोनों स्त्री-पुरुषों का सहारा, इस पुत्र को हरण करते समय तुमको लज्जा क्यों नहीं आई ? सर्वत्र तुम दयालु हो परन्तु मेरे विषय में निर्दयी हो मेरे भाग्य से यह उलटा कैसे हुआ है| स्वभाव से सुन्दर पुत्र की खोज इस समय मैं कहाँ करूँ? हे पुत्र! तुम्हारे मुख और सुन्दर नेत्र को कहाँ देखूँगा
मेघ जल को वर्षाता है, पृथ्वी धान्य को पैदा करती है, पर्वत रत्नों को और समुद्र मुक्तासार मणि को देते हैं, परन्तु उस देश को नहीं देखता हूँ जहाँ मरा हुआ पुत्र मिलता हो। जिसके शरीर का आलिंगन कर हृदय के ताप को छोड़ता हूँ| हे वत्स! तुम एक बार शीघ्र वचन सुनाओ और दया करो। तुम्हारी माता लज्जा छोड़कर चील्ह के समान अत्यन्त विलाप करती है – हे पुत्र! उसको देख कर तुमको दया क्यों नहीं पैदा होती है ? माता-पिता की आज्ञा बिना तुम कभी भी कही नहीं गये|
हे पुत्र! हम दोनों से बिना पूछे ही दूर के मार्ग को क्यूँ चले गये हो? इस समय बताओ मैं किसके वेदाध्यन की उत्तम वाणी को सुनुँगा?
हे वत्स! आज तुम्हारे और तुम्हारे मनोहर मधुर वचन के स्मरण से मेरा हृदय सौ-सौ टुकड़ा नहीं हो रहा है। क्योंकि मेरा हृदय लोहे के समान है|
हे कौशलेन्द्र! राजा दशरथ! तुमको हम धन्य मानते हैं क्योंकि रामचन्द्र के वन जाने पर पुत्र के ताप से दग्ध वे प्राणों को नहीं रख सके। परन्तु पुत्र के मर जाने पर भी जीवित रहनेवाले मुझको धिक्कार है|
हे गोविन्द! हे विष्णु! हे यदुनाथ! हे नाथ! हे श्रीरुक्मिणी के प्राणपति! हे मुरारी! हे दीन पर दया करनेवाले! हे दयालु! पुत्ररूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो|
हे देवाधिदेव! हे समस्त लोक के नाथ! हे गोपाल! हे गोपेश! हे चक्र को हाथ में धारण करने वाले! हे यमुना के विष-दोष को हरनेवाले! पुत्र रूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो|
हे बैकुण्ठ के वासी विष्णु! हे नरकासुर के नाशक! हे चराचर के आधार! हे संसार रूप समुद्र से पार करने के लिए जहाज रूप! अर्थात् संसार समुद्र से पार उतारने वाले! हे ब्राह्मादि देवताओं से नमस्कृत चरणपीठ वाले! पुत्ररूप अग्नि के ताप से सन्तप्त मेरी रक्षा करो|
हमारे समान शठ दूसरा कोई नहीं है जो मैंने देवकीपुत्र श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का उल्लंघन कर पुत्र में दुराशा की। कौन अभागा पुरुष भाग्य में न रहने वाली वस्तु को प्राप्त कर सकता है|
इसी प्रकार काफी समय तक ब्राह्मण सुदेव शर्मा और उसकी पत्नी गौतमी भगवान का नाम ले लेकर विलाप करते रहे|
||इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे दृढ़धन्वोपाख्याने सुदेवविलापो नाम सप्तदशोऽध्यायः||
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