Tuesday, January 19, 2021

बिल्वाष्टकम



त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधं |
त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पितं || 1 ||

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः |
तवपूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पितं || 2 ||

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनं |
अघ्रपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पितं || 3 ||

सालग्रामेषु विप्रेषु तटाके वनकूपयोः |
यज्ञ्नकोटि सहस्राणां एकबिल्वं शिवार्पितं || 4 ||

दन्तिकोटि सहस्रेषु अश्वमेध शतानि च |
कोटिकन्याप्रदानेन एकबिल्वं शिवार्पितं || 5 ||

एकं च बिल्वपत्रैश्च कोटियज्ञ्न फलं लभेत् |
महादेवैश्च पूजार्थं एकबिल्वं शिवार्पितं || 6 ||

काशीक्षेत्रे निवासं च कालभैरव दर्शनं |
गयाप्रयाग मे दृष्ट्वा एकबिल्वं शिवार्पितं || 7 ||

उमया सह देवेशं वाहनं नन्दिशङ्करं |
मुच्यते सर्वपापेभ्यो एकबिल्वं शिवार्पितं || 8 ||

इति श्री बिल्वाष्टकम् || 

चलो चले ज्योतिष की ओर ॥ ॥ अन्धविश्वास से विश्वास की ओर ॥

Thursday, December 17, 2020

पुरुषोत्तम मास अध्याय- 30

पुरुषोत्तम मास अध्याय- 30

नारदजी बोले :-

हे तपोनिधे! आपने पहले पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा की है अब आप उनके सब लक्षणों को मुझसे कहिये ॥ १ ॥

सूतजी बोले :-

हे पृथ्वी के देवता ब्राह्मणो! इस प्रकार नारद मुनि के पूछने पर स्वयं प्राचीन मुनि नारायण ने पतिव्रता स्त्री के लक्षणों को कहा ॥ २ ॥

श्रीनारायण बोले:-

हे नारद! सुनो मैं पतिव्रताओं के उत्तम व्रत को कहता हूँ। पति कुरूप हो, कुत्सित व्यवहारवाला हो, अथवा सुरूपवान्‌ हो ॥ ३ ॥

रोगी हो, पिशाच हो, क्रोधी हो, मद्यपान करनेवाला हो, मूर्ख हो, मूक हो, अन्धा हो अथवा बधिर हो ॥ ४ ॥भयंकर हो, दरिद्र हो, कुपण हो, निन्दित हो, दीन हो, अन्य स्त्रियों में आसक्त हो ॥ ५ ॥

परन्तु सती स्त्री सदा वाणी, शरीर, कर्म से पति का देवता के समान पूजन करे। कभी भी स्त्री पति के साथ कठोर व्यवहार नहीं करे ॥ ६ ॥

बाला हो, युवती हो अथवा वृद्धा हो परन्तु स्त्री स्वतन्त्रतापूर्वक अपने गृह में भी कुछ कार्य को नहीं करे ॥ ७ ॥

अहंकार और काम-क्रोध का सर्वदा त्याग कर पति के मन को सदा प्रसन्न करती रहे और दूसरे के मन को कभी भी प्रसन्न नहीं करे ॥ ८ ॥

जो स्त्री दूसरे पुरुष से कामना सहित देखी जाने पर, प्रिय वचनों से प्रलोभन देने पर अथवा जनसमुदाय में स्पर्श होने पर विकार को नहीं प्राप्त होती है ॥ ९ ॥

तो स्त्रियों के शरीर में जितने रोम होते हैं उतने हजार वर्ष तक यह स्त्री स्वर्ग में वास करती है ॥ १० ॥

दूसरे पुरुष के धन के लोभ देने पर जो स्त्री पर-पुरुष का मन, वचन, कर्म से सेवन नहीं करती है तो वह स्त्री लोक में भूषण और सती कही गई है ॥ ११ ॥

दूती के प्रार्थना करने पर भी, बलपूर्वक पकड़ी जाने पर भी, वस्त्र-आभूषण आदि से आच्छादित होने पर भी, जो स्त्री अन्य पुरुष की सेवा नहीं करती है तो वह सती कही जाती है ॥ १२ ॥

जो दूसरे से देखी जाने पर नहीं देखती है और हँसाई जानेपर भी हँसती नहीं है, बात करने पर बोलती नहीं है वह उत्तम लक्षण वाली पतिव्रता स्त्री है ॥ १३ ॥

रूप यौवन से युक्त और गाने-नाचने में होशियार होने पर भी अपने अनुरूप पुरुष को देखकर विकार को नहीं प्राप्त होती है वह स्त्री सती है ॥ १४ ॥

सुरूपवान्‌, जवान, मनोहर कामिनियों का प्रिय ऐसे पर-पुरुष के मिलने पर भी जो स्त्री इच्छा नहीं करती है तो वह महासती कही गयी है ॥ १५ ॥

पतिव्रताओं को पति के सिवाय दूसरा देवता, मनुष्य, गन्धर्व भी प्रिय नहीं होता, इसलिए स्त्री अपने पति का अप्रिय कभी नहीं करे ॥ १६ ॥

जो पति के भोजन करने पर भोजन करती है, दुःखित होने पर दुःखित होती है, प्रसन्न होने पर प्रसन्न होती है, परदेश जाने पर मैला वस्त्र को पहनती है ॥ १७ ॥

जो पति के सो जाने पर सोती है और पहले जागती है, १८ ॥

जो दूसरे को चित्त से नहीं चाहती है वह पतिव्रता स्त्री है। सास, श्वसुर में भक्ति करती है और विशेष करके पति में भक्ति करती है ॥ १९ ॥

धर्म कार्य में अनुकूल रहती है, धन-संचय में अनुकूल, गृह के कार्य में प्रतिदिन तत्पर रहने वाली है ॥ २० ॥खेत से, वन से, ग्राम से पति के आने पर स्त्री उठकर आसन और जल देकर प्रसन्न करे ॥ २१ ॥

नित्य प्रसन्नमुख रहे, समय पर भोजन दे, भोजन करते समय कभी भी खराब वाणी नहीं कहे ॥ २२ ॥

गृह में प्रधान स्त्री सदा आसन, भोजन, दान, सम्मान, प्रिय भाषण में तत्पर रहे ॥ २३ ॥

गृह के खर्च के लिये स्वामी ने जो धन दिया है उससे घर के कार्य को करके बुद्धिपूर्वक कुछ बचा ले॥ २४ ॥

दान के लिये दिये हुए धन में से लोभ करके, कुछ कोरकसर नहीं करे और बिना पति की आज्ञा के अपने बन्धुओं को धन नहीं देवे ॥ २५ ॥

दूसरे के साथ बातचीत, असन्तोष, दूसरे पुरुष के व्यापार की बातचीत, अत्यन्त हँसना, अत्यन्त रोष और क्रोध को पतिव्रता स्त्री छोड़ दे ॥ २६ ॥

पति जिस वस्तु का पान नहीं करता है, जिस वस्तु को खाता नहीं है, जिस वस्तु का भोजन नहीं करता है उन सब वस्तुओं का पतिव्रता स्त्री त्याग करे ॥ २७ ॥

तैल लगाना, स्नान, शरीर में उबटन लगाना, दाँतों की शुद्धि, पतिव्रता स्त्री पति की प्रसन्नता के लिये करे ॥ २८ ॥

हे मुनि! त्रेतायुग से स्त्रियों को प्रतिमास रजोदर्शन होता है उस दिन से तीन दिन त्याग कर गृहकार्य के लिये शुद्ध होती है ॥ २९ ॥

प्रथम दिन चाण्डाली है, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी है, तीसरे दिन रजकी है। चतुर्थ दिन शुद्ध होती है ॥ ३० ॥

स्नान, शौच, गाना, रोदन, हँसना, सवारी पर चढ़ना, मालिश, स्त्रियों के साथ जूआ खेलना, चंदनादि लगाना ॥ ३१ ॥

विशेष करके दिन में शयन, दतुअन करना, मानसिक अथवा वाचिक मैथुन करना, देवता का पूजन करना ॥ ३२ ॥

देवताओं को नमस्कार रजस्वला स्त्री नहीं करे। रजस्वला का स्पर्श और उसके साथ बातचीत नहीं करे ॥ ३३ ॥

रजस्वला तीन रात तक अपने मुख को नहीं दिखाये। जब तक शुद्धिस्नान नहीं करे तब तक अपने वचनों को नहीं सुनावे ॥ ३४ ॥

रजस्वला स्त्री स्नान कर दूसरे पुरुष को नहीं देखे, सूर्यनारायण को देखे, बाद पंचगव्य का पान करे ॥ ३५ ॥

अपनी शुद्धि के लिये केवल पंचगव्य अथवा दूध का पान करे। श्रेष्ठ स्त्री कहे हुए नियम में स्थित रहे ॥ ३६ ॥

यदि स्त्री गर्भवती हो जाए तो नियम में तत्पर रहे, वस्त्र-आभूषण अलंकार आदि से अलंकृत रहे और पति के प्रिय करने में यत्न्पूर्वक तत्पर रहे ॥ ३७ ॥प्रसन्नमुख रहे, अपने धर्म में तत्पर रहे और शुद्ध रहे, अपनी रक्षा कर विभूषित रहे और वास्तुपूजन में तत्पर रहे ॥ ३८ ॥

खराब स्त्रियों के साथ बातचीत न करे, सूप की हवा शरीर में नहीं लगे, मृतवत्सा आदि का संसर्ग, दूसरे के यहाँ भोजन गर्भवती स्त्री नहीं करे ॥ ३९ ॥

भद्दी चीज को नहीं देखे, भयंकर कथा को नहीं सुने, गरिष्ठ और अत्यन्त उष्ण भोजन नहीं करे और अजीर्ण न हो ऐसा भोजन करे ॥ ४० ॥

इस विधि से रहने पर पतिव्रता स्त्री श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त करती है, अन्यथा गर्भ गिर जाए, अथवा स्तम्भन हो जाए ॥ ४१ ॥

अपने गुणों से हीन दूसरी सौत की निन्दा नहीं करे, ईर्ष्या, राग से होनेवाले मत्सरता आदि के होने पर भी ॥ ४२ ॥

सौत स्त्री परस्पर में अप्रिय वचन नहीं कहे, दूसरे के नाम का गान न करे और दूसरे की प्रशंसा नहीं करे ॥ ४३ ॥

पति से दूर वास नहीं करे, किन्तु पति के समीप में वास करे और पति के कहे हुए स्थान में, पृथ्वी पर पति के सामने मुख करके वास करे ॥ ४४ ॥

स्वतन्त्रता पूर्वक दिशाओं को न देखे और दूसरे पुरुष को नहीं देखे। विलास पूर्वक पति के मुखकमल को देखे ॥ ४५ ॥

पति से कही जाने वाली कथा को आदर पूर्वक स्त्री श्रवण करे। पति के भाषण के समय स्वयं स्त्री बातचीत नहीं करे ॥ ४६ ॥

रति में उत्कण्ठा वाली स्त्री पति के बुलाने पर, शीघ्र रतिस्थान को जाए। पति के उत्साह पूर्वक गाने के समय स्त्री प्रसन्नचित्त से श्रवण करे ॥ ४७ ॥

गाते हुये पति को देख कर स्त्री आनन्द में मग्न हो जाए, पति के समीप व्यग्र (चंचल) चित्त से व्याकुल हो नहीं बैठे ॥ ४८ ॥

कलह के योग्य होने पर भी पति के साथ स्त्री कलह न करे। पति से भर्त्सित होने पर, निन्दा की जाने पर, ताड़ित होने पर भी पतिव्रता स्त्री ॥ ४९ ॥

व्यथित (दुःखित) होने पर भी भय छोड़ कर पति को कण्ठ से लगावे, ऊँचे स्वर से रोदन न करे और पति को कोसे नहीं ॥ ५० ॥

स्त्री अपने गृह से बाहर भाग कर न जाए, यदि बन्धुओं के यहाँ उत्सव आदि में जाए तो ॥ ५१ ॥

पति की आज्ञा को लेकर और अध्यक्ष (रक्षक) से रक्षित होकर जाए और वहाँ अधिक समय तक वास न करे, पतिव्रता स्त्री अपने घर को लौट आवे ॥ ५२ ॥

पति के विदेशयात्रा के समय अमंगल वचन को न बोले, निषेध वचन से मना न करे और उस समय रोदन न करे ॥ ५३ ॥

पति के देशान्तर जाने पर नित्य उबटन न लगावे और जीवन रक्षा के लिये स्त्री निन्दित कर्म को न करे ॥ ५४ ॥श्वसुर-सास के पास शयन करे, अन्यत्र शयन न करे और प्रतिदिन प्रयत्नोपूर्वक पति के समाचार की खोज लेती रहे ॥ ५५ ॥

पति के कल्याण समाचार मिलने के लिये दूत को भेजे और प्रसिद्ध देवताओं के समीप मांगलिक याचना करे ॥ ५६ ॥

पति के परदेश जाने पर पतिव्रता इस प्रकार के कार्यों को करे। अंगों को न धोना, मलिन वस्त्र को धारण करना ॥ ५७ ॥

तिलक न लगाना, आँजन न लगाना, सुगन्धित पदार्थ माला आदि का त्याग, नख, बाल का संस्कार न करना ॥ ५८ ॥

ऊँचे स्वर से हँसना, दूसरे से हँसी, दूसरे की चाल व्यवहार का विशेष रूप से चिन्तन करना, स्वच्छन्द भ्रमण करना,  ॥ ५९ ॥

एक वस्त्र से घूमना, लज्जा  रहित होकर चलना, इत्यादि दोष स्त्रियों को अत्यन्त दुःख देने वाले कहे गये हैं ॥ ६० ॥

गृह में कार्यों को करके हल्दी लेपन से और शुद्ध जल से शरीर को शुद्ध कर स्वच्छ श्रृंगार को करे ॥ ६१ ॥

खिले हुए कमल के समान प्रसन्न मुख होकर पति के समीप जाए, स्त्री के इस व्यवहार से युक्त और मन, वचन, शरीर से युक्त स्त्री ॥ ६२ ॥

पति से बुलाई जाने पर गृह के कार्यों को छोड़कर शीघ्र पति के पास जाए और कहे कि हे स्वामी! किसलिए बुलाया है कृपा पूर्वक कहें ॥ ६३ ॥

द्वार पर अधिक समय तक खड़ी न होवे। द्वार का सेवन न करे, स्वामी से मिली हुई चीज दूसरे को कभी न दे ॥ ६४ ॥

पति के उच्छिष्ट मीठा, अन्न, फल आदि को यह महाप्रसाद है यह कहकर निरन्तर प्रसन्न रहे ॥ ६५ ॥

सुख से सोये, सुख से बैठे, स्वेच्छा से रमण करते हुए और आतुर कार्यों में पति को नहीं उठावे ॥ ६६ ॥

अकेली कहीं न जाए, नग्न होकर स्नान न करे, पति से द्वेष करने वाली स्त्री को पतिव्रता न समझे ॥ ६७ ॥

मूसल झाड़ू, पत्थर, यन्त्र, देहली पर पतिव्रता कभी भी न बैठे ॥ ६८ ॥

तीर्थ में स्नान की इच्छा करने वाली स्त्री पति के चरणजल को पीये, स्त्री के लिये शंकर से भी अथवा विष्णु भगवान्‌ से भी अधिक पति ही कहा गया है ॥ ६९ ॥

जो स्त्री पति का वचन न मानकर व्रत उपवास नियमों को करती है वह पति के आयुष्य का हरण करती है और मरने के बाद नरक को जाती है ॥ ७० ॥

किसी कार्य के लिये कहीं जाने पर, जो स्त्री क्रोध कर पति के प्रति जवाब देती है वह ग्राम में निंदनीय होती है और निर्जन वन में सियारिन की भाँति होती है ॥ ७१ ॥

स्त्रियों के लिये एक ही उत्तम नियम कहा गया है कि स्त्री सदा पति के चरणों का पूजन करके भोजन करे ॥ ७२ ॥

जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली मिठाई खाती है वह वृक्ष के खोंड़रे में सोने वाली क्रूर उलूकी होती है ॥ ७३ ॥

जो स्त्री पति का त्याग कर अकेली एकान्त में फिरती है वह ग्राम में निंदनीय होती है ॥ ७४ ॥

जो स्त्री पति को हुँकार कह कर अप्रिय वचन बोलती है वह मूक अवश्य होती है, जो अपनी सौत के साथ सदा ईर्ष्या करती है वह दूसरे जन्म में दुर्भगा होती है ॥ ७५ ॥

जो स्त्री पति की दृष्टि बचा कर किसी दूसरे पुरुष को देखती है वह निंदनीय होती है अथवा विमुखी और कुरूपा होती है ॥ ७६ ॥

जो स्त्री पति को बाहर से आया हुआ देखकर जल्दी से जल, आसन, ताम्बूल, व्यंजन, पैर को दबाना आदि ॥ ७७ ॥

अत्यन्त प्रिय वचनों से पति की सेवा करती है वह स्त्री पतिव्रताओं में शिरोरत्न के समान पण्डितों से कही गई है ॥ ७८ ॥

पति देवता हैं, पति गुरु हैं, पति धर्म तीर्थ व्रत है, इसलिये सबका त्याग कर एक पति का ही पूजन करे ॥ ७९ ॥

आशीर्वाद को देने वाली एक माता को छोड़ कर दूसरी स्त्री के आशीर्वाद को भी सर्प के समान त्याग देवे ॥ ८२ ॥

ब्राह्मण लोग विवाह के समय कन्या से इस प्रकार कहलाते हैं कि पति के जीवित तथा मृत दशा में सहचारिणी हो ॥ ८३ ॥

इसलिये अपनी छाया के समान पति का अनुगमन करना चाहिये। इस प्रकार पतिव्रता स्त्री को भक्ति से सदा पति के अनुकूल होकर रहना चाहिये ॥ ८४ ॥

जिस प्रकार सर्प को पकड़ने वाला बलपूर्वक बिल से सर्प को निकाल लेता है उसी प्रकार सती स्त्री यमदूतों से छुड़ा कर पति को स्वर्ग ले जाती है ॥ ८५ ॥

यमराज के दूत दूर से ही पतिव्रता स्त्री को देखकर पापकर्म करने वाले भी उसके पतित पति को छोड़कर भाग जाते हैं ॥ ८६ ॥

जितनी अपने शरीर में रोम की संख्या है उतने दश कोटि वर्ष पर्यन्त पतिव्रता स्त्री पति से साथ रमण करती हुई स्वर्ग सुख को भोगती है ॥ ८७ ॥

विधवा स्त्री सर्वदा शिर के बालों को मुड़ा देवे, एक बार भोजन करे, कभी भी दूसरी बार भोजन नहीं करे ॥ ९१ ॥सदा श्वेत वस्त्र धारण करे ऐसा न करने से रौरव नरक को जाती है। इस प्रकार नियमों से युक्त विधवा स्त्री पतिव्रता है ॥ ९५ ॥

श्रीनारायण बोले:-

लोकों में तथा देवताओं में पति के समान कोई देवता नहीं है। जब पति प्रसन्न होते हैं तो समस्त मनोरथों को प्राप्त करती है। यदि पति कुपित होते हैं तो समस्त कामनाऐं नष्ट हो जाती हैं ॥ ९६ ॥

उस पति से सन्तान, विविध प्रकार के भोग, शय्या, आसन, अद्‌भुत प्रकार के भोजन, वस्त्र, माला, सुगन्धित पदार्थ और इस लोक तथा स्वर्ग लोक में विविध प्रकार के यश मिलते हैं ॥ ९७ ॥

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये श्रीनारायणनारदसंवादे पतिव्रतधर्मनिरूपणं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० 

Sunday, December 6, 2020

Astrology



I always have knowledge of all the events happening in the future, I have a divine gift as a future Spokeperson. Since the Vedic period, I am prevalent in all the scholars, I always have knowledge of all the events and results of the future, I consider the truth as my best friend and confidant, because in this world everone can not survive without friend.

But the untrue as enemy keeps calling me a superstition because the untruth does not want me to continue on my true path.

I do not have an ego but who have an keeps ego after making me as friend, there is no other idiot like that in this world. I do not even have enough money, but when my knowledge is presented to someone, then the presenter becomes rich in a moment. I am astrology.

The entire world is my home and all the satellites, constellations are my ultimate friend or a neighbor who always warns me about my house. Dasha also is my Supreme Friend. I love the atmosphere of truth. When I am called with truth, I get the glory of victory. I am astrology.

I respect all the human beings living in the earth as "guest of honor". I explain the truth to all human beings and praise the truth. I have placed more emphasis on karma through my knowledge because luck can be determined by karma. I am astrology.

I provide full support to every human being in the event of difficulty. In the event of difficulty, I take the help of my best friends, planets, constellations, etc.to motivate the human living organism to live with restraint. Because in difficulty patience is only true friend. 
When human beings follow my advise in a state of anxiety, then I advise them to think because I also think in times of anxiety. My thinking is much deeper than the ocean. I am still contemplating today. That someone should present my real form to this new world. I am astrology.

Courtesy by: 










Tuesday, November 24, 2020

Rahu - A Vengeance




Rahu As the name suggests, a planet with a malefic planet, it is said that a person who has an inauspicious effect of the Raahu in his Horoscope  gets a lot of trouble in his life.

But did we ever try to find out why Rahu is bad. Why despite a sin planet, importance has been given in the Navagrahas. Why worship rituals are done more and more in the name of Rahu. There are many such questions which have a profound effect on our brain. Come, today we try to find answers to similar questions.

According to mythological belief, Rahu was the name of an asura. Who was providing his support in the Samudramanthan on behalf of the Asuras at the time of Samudramanthan for accidental benefit. According to which we can say that Rahu was hardworking and greedy.

It is said that when the nectar was received at the time of Samudramanthan, the gods and asuras tried to get their authority over it, but the gods cleverly forced the Vishnu god not to give the nectar to the asuras for establishment of the religion after this it has decidefappropriate to make the drink of that nectar to the gods instead of the Asuras, but when Rahu came to know about it, he became extremely angry with the injustice of Gods and Vishnu.

He took his form like the gods to take revenge for this injustice. Thus it can be said that Rahu was against injustice.

But at the time of amritpana, Surya and Chandra recognized Rahu and got his face separated from his torso by Lord Vishnu. Due to which Rahu could not fulfill his desire of attaining immortality even after getting nectar and retaliating and started eclipsing Sun and Moon.

If Raahu is place in human's Horoscope on Strong bhaav, he only disturb Sun and Moon in his Mahadasha. Due to which the person is also very disturbed physically and mentally and gets worship rituals etc. done to calm Rahu.

In this way we can say that Rahu is not wrong, he only wants to get benefit in some way by thinking only about his interest, even in this time, Rahu is present in every human being. Who wants to create a unbiased society. Who wants to take vengeance on the injustice done to them very quickly. One who seeks gains from opportunities. Who wants to fulfill his desires very quickly.

But till date we have not been able to get the right introduction of Rahu in front of anyone, because we have to earn money through Rahu. Just like a Recieve a donate by showing fear the name of criminal.

In order to pacify Rahu, Rahu should be anointed daily with cow's milk along with the chanting of "Oum Ram Raahvey namoh namah" in the Rahu period. By doing this if Rahu is present in the any Bhhav of horoscope then Raahu provides immediate benefits for that house.

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